जयंती विशेष : स्वाधीन कलम के निर्भीक उद्गाता – गोपाल सिंह नेपाली

आधुनिक हिंदी कविता की रचनात्मक जमीन को आत्माभिमान और स्वाधीनता जैसे प्रतिरोधी भावों से सिंचित करनेवाले रचनाकारों की जमात के नायक कविवर गोपाल सिंह नेपाली ‘कवि की स्वायत्तता’ के सर्वोत्तम प्रतिमान हैं। ‘कवि की स्वायत्तता’ को सर्जना की निर्बाध उड़ान और दूरदृष्टि सम्पन्न आत्मविश्वास के संदर्भों से जोड़कर देखने पर गोपाल सिंह नेपाली की युगांतकारी रचनाशीलता का मर्म खुद-ब-खुद जाहिर होने लगता है। इस मर्म की अभिव्यक्ति करते हुए उन्होंने लिखा है –

“ हम धरती क्या आकाश बदलनेवाले हैं,
हम तो कवि हैं इतिहास बदलने वाले हैं।”

बताने की जरूरत नहीं है कि समय की शिला पर कवियों, रचनाकारों की प्रगतिगामी भूमिका का जयघोष वही कवि कर सकता है, जिसने अपने जीवन में मूल्यों और आदर्शों को साकार किया हो। यहाँ यह भी याद रखना जरुरी है कि कविवर नेपाली की काव्ययात्रा प्रकृति प्रेम से शुरू हुई थी जिसका उतरोत्तर विस्तार मानवप्रेम और राष्ट्रप्रेम तक हुआ। इस क्रम में उन्होंने भावना की विस्तृत भूमि को आधार बनाकर कई कालजयी रचनाओं का प्रणयन किया।


हिंदी साहित्य के उत्तर छायावादी युग के प्रमुख स्तम्भ रहे गोपाल सिंह नेपाली का जन्म 11 अगस्त, 1911 को बेतिया शहर में अवस्थित कालिबाग मन्दिर प्रांगण के आउट हाउस में हुआ था।

उल्लेखनीय है कि तब उनके पिता रेलबहादुर सिंह बेतिया राज की सेवा में कार्यरत थे। जन्मस्थली चम्पारण की प्राकृतिक सुषमा और स्निग्धता के मोहवश काव्य-सर्जन की ओर उन्मुख हुए गोपाल सिंह नेपाली की प्रकृति केन्द्रित सरस, सहज और लालित्यपूर्ण कविताओं की तुलना सिर्फ हिंदी के सुकुमार कवि सुमित्रानंदन पन्त की कविताओं से की जा सकती है।

23 वर्ष की युवावस्था में कविवर नेपाली का पहला काव्य संग्रह ‘उमंग’(1934) प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह की भूमिका में पन्त जी ने गोपाल सिंह नेपाली की काव्यात्मक मौलिकता और विशिष्टता को उजागर करते हए ऐतिहासिक टिप्पणी की है-

“आपने निर्झर को झरना,सरोवर को झील ,पक्षी को पंछी ,रिक्त को रीता बनाकर खड़ी बोली की कविता को सहज सुषमा से पूर्ण कर दिया है।”

एक नवोन्मेषी भावक की तरह उन्होंने प्रकृति के तमाम दृश्यों और गतिविधियों को अपनी मौलिक सर्जना से अपूर्व कलात्मकता प्रदान की है। एक कविता में उन्होंने पीपल के पत्तों का मानवीकरण करते हुए उनके अस्तित्व को सजीव कर दिया है –

“पीपल के पत्ते गोल-गोल
कुछ कहते रहते डोल-डोल l”

भारतीय उपमहाद्वीप की विशाल चौहद्दी में समाहित वैविध्यपूर्ण प्राकृतिक सौन्दर्य एवं रमणीयता की भंगिमाओं को ‘पोएटिक स्केचिंग’ के जरिये जो साकार रूप उन्होंने दिया ,वह पाठकों को चमत्कृत करने के लिए पर्याप्त है l कल्पना और अनुभूति से मेल से उपजा यह अद्वितीय काव्यचित्र द्रष्टव्य है –

“ सुनहरी सुबह नेपाल की, ढलती शाम बंगाल की
कर दे रंग फीका चुनरी का ,दोपहरी नैनीताल की।”

‘गीतों के राजकुमार’ के रूप में प्रतिष्ठित गोपाल सिंह नेपाली ने गीत विधा को भाव और शिल्प दोनों निकषों पर समृद्ध किया। उन्होंने अपनी प्रभावी प्रस्तुति और सामयिक रचनाओं के बल पर हिंदी की मंचीय काव्य- परम्परा को उत्कर्ष तक पहुंचाया। गीत, संगीत और कविताई के सममिश्रण से वो ऐसा जादू बाँध देते थे कि देश के जिस भी शहर में नेपाली जी काव्य पाठ के लिए आमंत्रित किये जाते वहां हजारों श्रोता उनको सुनने के लिए व्यग्र हो जाते। गणमान्य से लेकर श्रमिक समाज तक सभी उनके गीतों का मुरीद थे।

सामाजिक और सांस्कृतिक चेतना से लैस उनके गीतों में किसान, मजदूर, नौजवान, विरहिणी, भाई, बहन, सैनिक, राष्ट्र-गौरव जैसे विषय पूरी मार्मिकता और अर्थवत्ता के साथ अभिव्यक्त होते थे। समय की नजाकत के अनुसार उन्होंने अपने गीतों के विषय का चयन किया। जब नवस्वतंत्र राष्ट्र के नवीन स्वप्नों को संकल्पित करने का समय था तब उन्होंने नवनिर्माण के गीत लिखे और जब जनता को जाग्रत करने की आवश्यकता थी तो उन्होंने जागरण के गीत लिखे। जब पूरे देश में स्वाधीनता प्राप्ति के बाद नवता बोध की प्रगतिशील धारा को निराला ‘नवगति नवलय ताल छंद नव’ की उर्जा से अनुप्राणित कर रहे थे तब नेपाली जी भी हिंदी के मंचों से ‘निज राष्ट्र के शरीर के सिंगार के लिए /तुम कल्पना करो,नवीन कल्पना करो/तुम कल्पना करो’ के ओजस्वी आह्वान को प्रतिध्वनित कर रहे थे। नेपाली जी की नवीन कल्पना का साध्य भारतीय संविधान में वर्णित ‘लोक कल्याणकारी राज्य’ को साकार करने से सम्बन्धित था।

नेपाली जी की काव्य-यात्रा की परिधि में -पराधीन और स्वतंत्र- दोनों तरह के भारत सम्मिलित हैं। पराधीन भारत में अपनी नागरिक चेतना को सामूहिक गोलबंदी से सम्बद्ध करते हुए जिस कवि ने लिखा

“ बढ़ो तुम्हारे बलिदानों से /मानव जरा उदार बनेगा /बढ़ो तुम्हारे इन क़दमों से जीवन बारम्बार बनेगा” ,

वही कवि आजाद भारत में नेतृत्वकर्ताओं की बेईमानियों से उत्पन्न मोहभंग की परिस्थितियों में खुद को अकेला और निराश पाता है लेकिन कमाल यह है कि विद्रूपता भरे कठिन समय में भी कवि का आत्मविश्वास नहीं डिगता तभी तो वह आम जनमानस के विचारों को प्रतिबिंबित करते हुए लिखता है – तुम-सा लहरों में बह लेता/ तो मैं भी सत्ता गह लेता /ईमान बेचता चलता तो /मैं भी महलों में रह लेता”। सर्वांगीण मूल्यहीनता और पतनशीलता से आक्रांत आज के दौर में गोपाल सिंह नेपाली की उपरोक्त पंक्तियाँ पहले से ज्यादा मानीखेज हो गयी हैं क्योंकि आज राजनीतिक,आर्थिक और आपराधिक भ्रष्टाचार अपने चरम पर है ऐसे में सबकुछ लुटाकर ईमान बचाने वाले बेख़ौफ़ कवि की याद आना स्वाभाविक है।

कविवर नेपाली के कृतित्व की पहचान उनके सिनेमाई योगदान के बगैर पूरी नहीं हो सकती। उन्होंने हिंदी सिनेमा के गीतों को न केवल नई दिशा दी बल्कि वास्तविक अर्थों में ‘हिंदी गीत’ लिखे। उर्दू-वर्चस्व वाले सिने जगत में 400 से ज्यादा ‘हिंदी गीत’ लिख पाना नेपाली जी की जीवटता का प्रमाण है। उनके लिखे गीत और भजन आज भी लोगों के मानस पटल पर अंकित हैं। भक्तिभाव से परिपूर्ण शास्त्रीय गीत लिखने में तो नेपाली जी की प्रतिभा अतुलनीय है। उनके द्वारा नरसी भगत’(1957) फिल्म का यह भजन “दर्शन दो घनश्याम आज मेरी अंखिया प्यासी रे” इसका परिचायक है।

फिल्म ‘नागपंचमी’ में उनके लिखे गीत “अरथी नहीं नारी का संसार जा रहा है ,भगवान तेरे घर का सिंगार जा रहा है” की मार्मिकता से प्रभावित होकर मशहूर शायर हफ़ीज़ जालंधरी ने लिखा-

“विश्व में आज आज तक किसी भी कवि ने बेजान मुर्दे पर इतना गजब का गीत नहीं लिखा ,धन्य हैं कविवर नेपाली l”

कविवर नेपाली ने उमंग(1934), रागिनी(1935), पंचमी(1942), नवीन(1944), नीलिमा (1944), हिमालय ने पुकारा (1963) जैसे काव्य संग्रहों और प्रभात, सुधा, योगी, रतलाम टाइम्स जैसी पत्रिकाओं के सम्पादकीय कार्यों के माध्यम से आजीवन हिंदी की सेवा की।
गोपाल सिंह नेपाली को ‘हिमालय ने पुकारा’ काव्य संग्रह से अन्यतम प्रसिद्धि मिली। इस संग्रह में चीनी आक्रमण (1962) के प्रतिरोध की सृजनात्मक अनुगूंज है। इस समय नेपाली जी की कलम ने बन्दूक से ज्यादा ताकत दिखाई l पूरे देश में घूमते हुए उन्होंने “ उजड़े न हिमालय तो अचल भाग्य तुम्हारा /चालीस करोड़ों को हिमालय ने पुकारा” गीत सुनाकर जन-जन में राष्ट्र-कल्याण के लिए सर्वस्व उत्सर्ग करने वाली विद्रोही भावना का संचार किया l देश की तरुणाई को योद्धा बनने का संदेश संप्रेषित करने के दौरान ही ‘स्वाधीन कलम को अपना धन maneमानने वाले’ कविवर नेपाली का निधन 17 अप्रैल,1963 को भागलपुर रेलवे स्टेशन (बिहार) पर हो गया।

लेखक- डॉ.मो.दानिश, युवा साहित्यकार हैं।