व्यंग : ये पब्लिक है, सब जानती… साहबानों की बात ही निराली होती है

साहबानों की बात ही निराली होती है. अगर डायरेक्ट वाले हुए तो और भी कई गुण जुड़ जाते हैं. मसलन ऐंठन के साथ शाहंशाह होने के भाव. इस भाव के बाद उनके व्यक्तित्व में हर चीज का अभाव बेचारी जनता-जनार्दन को दिखने लगती है.

बावजूद इसके साहबानों की विदाई पर सारे लोग बिफर पड़ते हैं. ‘गुलदस्ता गैंग’ का बिफरन लाजिमी भी है क्योंकि वे तो तोड़-जोड़ कर गुलदस्ता थमा ही आते हैं. अगर पिछले के साथ सहज ढ़ंग से गुलदस्ता दे पाने में असहज हुए तो आने वाले को देने की आनन-फानन होती है ताकि पहले आने वाले , पहले और ज्यादा पाते भी हैं, ऐसी उम्मीद वे सदैव पाले रहते हैं.

समाज का वास्तविक बौद्धिक वर्ग इसलिए बिफरते रहता है कि समाज में सम्मान का नैसर्गिक हक उसे हासिल हो सके. जिला स्तर पर सम्मान का हक बौद्धिक वर्ग को साहबानों के पास ही दिखता है क्योंकि समाज उसे बौद्धिक मानने को तैयार नहीं होता है. कहा गया है न! ,”घर की मुर्गी दाल बराबर.” साहबान गुदानने को तैयार नहीं दिखते हैं क्योंकि IAS/PCS की तैयारी के दौरान क्या इतिहास, क्या भूगोल, क्या दर्शन शास्त्र आदि-आदि सब पर ‘उपर झझ’ ज्ञान प्रवाह सदैव होता रहता है.

सारे साहबान ज्ञानी होते हैं. यह स्वयंसिद्ध है. कुछ ज्ञान के भंडार को दबाकर बैठते हैं और इसके दंभ के भाव से वे अपने व्यक्तित्व को अभाव ग्रस्त बना देते हैं. ……तो कुछ को ज्ञान बघारते की वरदहस्तता माँ सरस्वती कृपा से प्राप्त हो जाती है. वे इस भाव से अपने व्यक्तित्व को अभाव ग्रस्त बना बैठते हैं.

लेकिन जहाँ भाव होता है, वहाँ अभाव पूर्ण अस्तित्वान नहीं हो पाता है. दोनों तरह के साहबानों का भाव धन-संपदा का अभाव कतई पैदा नहीं होने देता है. साहबानों की गुपचुपी भी धनवर्षा का भाव पैदा करता है और बड़ बोलापन भी….

ये पब्लिक है, सब जानती! मैं अज्ञानी कब से तथ्य पर प्रकाश डालने का सामर्थ्य हासिल करने वाला हो गया! हे! ईश्वर !!
शहर के बाजार से अतिक्रमण हटाने की आहट केवल पब्लिक ही समझती है!

व्यंग्यकार- राकेश कुमार, लेखक व वरिष्ठ पत्रकार हैं।