औरंगाबाद वर्षांत और वर्ष की शुरुआत से ही आनंदित हो रहा था कि साल के चौथे दिन मुख्यमंत्री जी का आगमन हुआ है। कुछ ही घंटों के लिए ही सही, औरंगाबाद, जिला मुख्यालय से संभागीय मुख्यालय कौन कहे; सीधे राज्य की राजधानी जैसा होने का सुख प्राप्त कर रहा है। आखिर, वजह भी थी क्योंकि दिवस व मुहूर्त भी तय हो चुका था।
जिले के आला अधिकारियों को नये साल के स्वागत में सराबोर होने के ‘अवसर में शून्यता’ के संकट मंडराने की आत्मानूभूति होने लगी थी किन्तु समय की शिकस्ती में भी मौज की मस्ती के महारथ वाले अधिकारियों ने नये साल के स्वागत में सराबोर होने का अवसर निकाल ही लिया होगा!
खैर, मुख्यमंत्री जी समेत पुलिस महानिदेशक तक की सुरक्षा के चाक-चौबंद व्यवस्था के लिए पुलिस अधीक्षक को इस ठिठुरती ठंड में भी पसीने चले होंगे! हांय-हांय-सांय-सांय करती पुलिस गाड़ियाँ तो खुद ही इसके सबूत दे रहे थे, ऐसा लोगों का मानना है। ऐसा मैंने भी महसूस किया क्योंकि मुख्यमंत्री जी के साथ मेरे भी एक सचिव मित्र पटने से आये थे किन्तु उनका स्वागत का सौभाग्य केवल व्हाट्सअप पर “वेलकम टू औरंगाबाद, मित्र!” लिख कर ही करना पड़ा जो पहाड़ भर बड़े उद्देश्य के लिए राई भर बड़े त्याग के समान था!
जीविका की दीदियों में कुछ ज्यादा ही खुशी थी। जीविका की उन दीदियों में कुछ ज्यादा ही खुशियाँ थी जिन्हें मुख्यमंत्री जी के समक्ष अपने अनुभव साझा करने थे। अनुभव खुद के थे, किन्तु स्क्रिप्ट अधिकारियों द्वारा लिखे गये थे, लेकिन वे इस बात से फूले नहीं समा रहीं थी कि मंच पर बोलने का अवसर तो उन्हें ही मिलेगा। सभा में शामिल होने वाली जीविका दीदियों में संतोष चरम पर था, किन्तु असंतोष का उभार भी महसूस किया जा सकने वाला था क्योंकि मंच का मौका कुछ को ही था और दिल के उद्गार की अभिव्यक्ति के मौके के बावजूद भी संवाद और पटकथा अधिकारियों ने पहले से ही लिख डाला था।
बिहार का जीविका देश का आजीविका बना इस बात का फक्र केवल मुख्यमंत्रीजी को ही क्यों, हम सभी बिहारवासियों को है औऱ होना भी लाज़िमी है।
औऱंगाबादवासियों के लिए और भी गौरवानुभूति थी क्योंकि समाज सुधार यात्रा मगध की ज्ञान भूमि पर नये आकार और नये आयाम के साथ संपूर्ण बिहार की सीमा को पार कर देश के लिए नज़ीर बनने के सपने का संकल्प दुहरा था।
मुख्यमंत्री जी का उद्बोधन आशीर्वचन से भी बढ़कर था क्योंकि सर्वदा होता यह आय़ा है कि समाज के भले से ओत-प्रोत कदम जन आशीर्वाद के तत्वों का समा लेता है, जैसे कि साहित्यों में सागर गागर में समा जाता है। यहां तो यह और भी खास था क्योंकि इन्हें 2005 से ही बिहार का जन आशीर्वाद प्राप्त हो रहा है।
समाज सुधार यात्रा का संयोजी घटक नशा मुक्त बिहार अब भारत को नशा मुक्त बनाने की संभावना की आस जगाने की चाह रखता है क्योंकि शराब ईश्वर का अस्तित्व प्राप्त कर चुका है जो दिखता कहीं नहीं है, पर बिकने की संभावना सभी जगह रखता है, किन्तु विभाग के प्रधान सचिव के बदलाव के साथ ही ‘ईश्वरीय अस्तित्वधारी शराब’ फिलहाल लुप्तीकरण की स्थिति में हैं और साँप की भांति शीतकालीन सुषुप्ति (हिबरनेशन) का दौर काट रहा है! बहरहाल, कुछ महीनों से यह ‘न दिखने और न ही बिकते दिखने’ की स्थिति में आ गया है।
दहेज मुक्त विवाह का आह्वान बालिकाओं व बालिकाओं के माता-पिताओं के दुआ से सराबोर होकर बिहार मात्र की सीमा को पार कर बहुतायत मात्रा में मुख्यमंत्री जी को प्राप्त होने वाला जन आशीर्वाद में बढ़ोत्तरी करेगा जो उनकी सत्ता और जीवन के लिए जीवनदायिनी बनेगा, ऐसा मुझे उम्मीद है।
भ्रष्टाचार उन्मूलन के लिए ताबड़-तोड़ छापेमारी और उनसे धन की जब्ती समता मूलक समाज की दिशा में सामाजिक न्याय के साथ विकास की संकल्पना को सही व्यक्ति तक, सही मात्रा में पहुंचाने में कामयाब होगा, ऐसा लोगों का विश्वास है किन्तु अपने जीवन में नैतिक तत्वों को पार्श्व में रख देने वाले या त्याग देने वाले मंत्री और अधिकारियों के साथ नैतिक तपोबल की पराकाष्ठा वाले वाले मुख्यमंत्री जी की यात्रा और पहल को लोग-बाग ‘अकेला चन्ना फांड नहीं फोड़ता’ के रूप में भी देखने से गुरेज नहीं कर रहे हैं।
मुख्यमंत्री जी के समाज सुधार यात्रा से लोगों को बहुत उम्मीद है किन्तु अधिकारियों द्वारा प्रायोजित यात्रा की स्थिति लोगों के बीच सफलता की नाउम्मीदी का नकारात्मक संदेश भी देता दिख रहा है। हो यूं रहा है कि जन संवाद और जन संदेश देने वाला यह समाज सुधार यात्रा जिस शहर में तय हो रहा है, वहां जनसंवाद से ज्यादा एक अलगाव उत्पन्न करता दिख रहा है।
आमजन के तकलीफ को ओहदाधारी तबतक संजीदगी से महसूस नहीं कर सकेंगे, जबतक आमलोगों से उनका सीधा जुड़ाव नहीं होगा। जिस दिन से समाज का हरेक ओहदाधारी अपने रोजमर्रा के कुछेक कार्यों को यादृच्छिक रूप से खुद से निपटाने के संकल्प के साथ दायित्वों का निर्वहन करने लगेगा, उसी दिन से आम लोगों के दैनिक जीवन की परेशानियों का ‘आटा-दाल का भाव’ वह प्रत्यक्ष महसूस करने लगेगा।
खुद ही सोचिये कि अगर एक अधिकारी खुद झोला-डंडा लेकर बाजार जाएगा तो आमलोगों का दर्द खुद महसूस करेगा और अगर वह ईमानदार होगा, तो उसे ‘आटा-दाल का भाव’ भी पता चलेगा जिससे उसकी संवेदनशीलता समाजोन्मुख होगी, अन्यथा ओहदे की प्राप्ति के बाद उच्च पगार औऱ उच्च सुविधा की स्थिति उसका समाज से अलगाव व विलगाव उत्पन्न करा देता है और कुछ ही सालों के बाद उसके ‘सेवा ही संकल्प’ के ध्येय का यांत्रिकरण हो जाता है औऱ वह रोबोटिक अंदाज में ड्यूटी को किसी तरह पूरा करने और कार्यनिष्पादन में अव्वलता की छद्मता को आंकड़ों की बाजीगरी से सर्वोत्तम तक पहुंचाने की फिराक में लग जाता है।
(लेखक- राकेश कुमार, वरिष्ठ पत्रकार, शैक्षिक मामले के जानकार और लेखक: पुस्तक ‘लोकराज के लोकनायक’)