पीयूष रंजन झा
बिहार विधानसभा 2020 चुनाव के लिए आज कमोबेश आधा दर्जन से अधिक गठबंधनों की घोषणा लोकतंत्र के सबसे बड़े महपर्व के लिए हो चुकी है। बिहार की प्रमुख राजनितिक समस्या जातिवाद, अपराधीकरण, सूटकेस की राजनीति, महिलाओं और युवाओं का शोषण और विचारहीन राजनीति का बोल बाला अपने चरम पर है। बिहार में मौजूदा दौर में स्थापित पार्टियों या गठबंधनों की बात करे तो एक तरफ हमें सांप्रदायिक शक्तियों के साथ सामाजिक न्याय का अजीबोगरीब घालमेल तो दूसरी तरफ परिवारवाद, जातिवाद और अल्पसंख्यक तुस्टीकरण का संगम मिलेगा। ऐसे दौर में आज हमें एक नए विकल्प की ओरे देखने की जरुरत है। क्या बिहार में ऐसी एक पार्टी और चेहरे का विकल्प मौजूद नहीं है ? या हम स्थापित पार्टियों या नेताओ या बिकी हुई मीडिया के चश्मे से उस विकल्प पर आंख मूंदे हुए है।
देश में जिस तरह पिछले एक सप्ताह में बलात्कार पर राजनीति हुई है उसने एक भारतीय के नाते हमारा सर शर्म से निचे किया है। कोई हाथरस की बात करता है लेकिन राजस्थान की नहीं। कोई बलात्कारियों को बचाने के लिए रैली निकालता है। आज जब एक बीजेपी शासित राज्य में भाजपा का कार्यकर्त्ता बलात्कारियों के पक्ष में रैली कर रहा है , जिस तरह एक नेता लिंचिंग के आरोपियों को माला पहना रहा हो। लोकतंत्र के हत्या की बारम्बार कोशिश जारी है। ऐसा किस लोकतंत्र में होता है कि आपको बलात्कार और हत्या पीड़ित परिवार से मिलने से रोका जाता है , रोकने के लिए लाठिया लहराई जाती है महिलाओ के कपडे पुलिस फाड़ रही है। ऐसे दौर में कल बिहार में भाजपा के शासन में ऐसी घटनाएं न हो इसकी गारन्टी कौन लेगा?
हमें आज बिहार में लल्ला और ललना के राजनीति से भी ऊपर उठने की जरुरत है। ये लल्ला और ललना अपने पिता के नाम पर आकर लोगो को मुर्ख बनाकर सांसद और विधायक बन जाते है और आज बिहार चुनाव में तिकड़म लगा रहे है। अपने ही जाति के लोगो को ठग ठग कर जिसके साथ गठबंधन बनाये उसके साथ भी धोखा कर रहे है। इनका कल क्या भरोसा की ये बिहार की जनता के साथ धोखा नहीं करेंगे। सिर्फ जाति और परिवार के नाम पर वोट लेना चाहते है और किसी स्वतंत्र युवा को आगे बढ़ने नहीं देना चाहते। पिता की विरासत के सिवाय इनके पास क्या कोई विजन है बिहार के लिए? क्या कोई ब्लूप्रिंट है ये कैसे बिहार को आगे ले जा पाएंगे? ये सिर्फ अपना और अपने परिवार को आगे बढ़ा सकते है। एक बार को अगर यह मान भी लिया जाए कि लालू प्रसाद यादव और राम विलास पासवान ने अच्छा काम किया तो उसके लिए जनता ने उन्हें सर आखों पर रखा लेकिन उनके बेटो ने ऐसा कौन सा काम किया है। आज भी ये अपराधी, माफिया, बलात्कारियों और धनबल से अपनी पार्टी को मुक्त नहीं करा पाए तो बिहार को अपराध और धनबल से कैसे मुक्त करा पाएंगे।
बिहार के अंदर जिस तरह व्यक्तिवादी गठबंधन बन रहे है, जहा टुकड़ो के अंदर भी टुकडा की राजनीति हो रही है वहा बिहार को तोड़ने के बदले जोड़ने की बात होनी चाहिए। ऐसे में बिहार में जरुरत है ऐसे चेहरे की जो साफ़ स्वच्छ छवि रखता हो। देश में आज युवाओ को नेतृत्व देने की बात जोर शोर से चल रही है ऐसे में एक युवा लड़की जो उच्च शिक्षा हासिल की है, जो बिहार और बिहारियों को समझती है जो यहां रोजगार की समस्या से मुक्ति की बात करती है, जो यहां बंद पड़े उधोग धंधो को फिर से खड़ा करने की बात करती हो, उनको मौका देने में क्या दिक्कत है ? मैं बात कर रहा हूँ पुष्पम प्रिया चौधरी और उनकी पार्टी प्लुरलस की। जिसकी आदर्शवादी राजनीति की भ्रूण हत्या पर बिहार की सभी पार्टियां आमादा है। हम अगर बात करें बिहार के एजेंडा की तो आज बिहार को क्या चाहिए? बिहार को जो चाहिए वैसे बिहार की परिकल्पना किसी भी पुराने नेता या दल के पास नहीं है। बिहार में जब बार बार बदलाव के नाम पर नए नए लोगो को मौका मिलता रहा है तब एक बार बदलाव और सही।
इसलिए बिहारी होने के नाते हमें सचेत और संजीदा होने की जरुरत है। तमाम राजनीतिक दलों और उनके नेताओ की व्यक्तिगत हित को छोड़ते हुए हमें बिहार के हित के बारे में सोचना चाहिए। आज जो टिकटों के लिए खरीद फरोख्त का धंधा चल रहा है यह चुनाव के बाद भी चलेगा। कैसे कर्नाटक में कुमारस्वामी और मध्यप्रदेश में कमलनाथसरकार गिरा कर नयी सरकार बनायीं गयी ? कल बिहार में ऐसी स्थति उत्पन्न हो जाए इसकी संभावना से कौन इंकार कर सकता है? इन सभी राजनीतिक घटनओ से बिहार अछूता नहीं है। बिहार में अभी ही टिकट बेचा जा रहा है। यह टिकट खरीदने बेचने की राजनीति बंद होनी चाहिए। प्लुरलस ने बिलकुल पारदर्शी तरीके टिकटों का वितरण करके दिखा दिया की आदर्श तरीके से राजनीति बिहार में संभव है। तमाम राजनीतिक दलों की तरह प्लुरलस में भी कमी कमजोरिया हो सकती है जिसकी आलोचना समालोचना आगे होगी लेकिन फिलहाल बिहार के लिए एक विकल्प मौजूद है।
पुष्पम प्रिया चौधरी को लेकर जो प्रमुख आलोचनाएं है उसमे कहा जाता है की विदेश से आयी है, बिहार को कितना जानती है? काला कपडा पहनती है? अंग्रेजी बोलती है इत्यादि। आलोचनाओ पर अगर बात की जाए तो जब वो बिहार में जन्मी है, यही पली बढ़ी है, उनका परिवार बिहार में ही है तो वो बिहार को क्यों नहीं समझ सकती? सुशांत सिंह, शत्रुघ्न सिन्हा और सोनाक्षी सिन्हा जो मुंबई में रहते हुए बिहारी हो सकते है, तब पुष्पम को लंदन वाला कैसे कहा जा सकता है। कोई अगर लंदन से उच्च शिक्षा प्राप्त कर वापस बिहार आयी है, तो ये बिहार के लिए गौरव की बात है। वो बिहार को समझकर बिहार के विकास के लिए काम करना चाहती है तो इसमें क्या हर्ज है ? आज वैसे भी बिहार में आधी आबादी की स्थिति डिसिशन मेकिंग में लगभग नगण्य ही है। रही बात उनकी संस्कृति और सभ्यता की समझ को लेकर तो उनकी पैदाइश बिहार की है। जब हम राजनीति में विकल्प की बात करते है तो विकल्प का मतलब हमेशा “जो सबसे खराब है उसमे से जो कम ख़राब है उसको चुना जाता है “। राजनीतिक विकल्प की बात करते हुए हम प्राथमिकता को तय करते हैं, हम देख रहे है की जितनी भी पार्टिया है सभी यथास्थितिवाद में फंसी हुई है ऐसे में हम एक नया विकल्प देख सकते है। आज जब देश दुनिया में तकनीति क्रांति हो रही है वैसे स्थति में एक वेल अवेयर की तलाश बिहार को है जो हमें न सिर्फ बाढ़ से मुक्ति दिलाये बल्कि पलायन को रोके, रोजगार का सृजन करे और समुचित शिक्षा और स्वास्थ्य पर काम करें। आज हम जिस परपम्परावादी चीजों में उलझे हुए है कोई नेता या पार्टी अपने जात का भी भला नहीं कर पाया है तब जातिवाद के झंझट से भी बाहर निकलने की जरुरत है।
पुष्पम प्रिया चौधरी पर एक जो आलोचना की जाती है ,अखबारों के माध्यम से मुख्यमंत्री उम्मीदवार घोषित कर दिया। मैं तो उन लोगों से पूछना चाहता हूं कि इसमें हर्ज या बुराई ही क्या है ? अगर एक योग्य युवा लड़की यह दम दिखा रही है तो उसका सपोर्ट क्यों न किया जाए। मैं तो उन सभी लोगो से पूछना चाहता हूं कि पुष्पम प्रिय चौधरी क्यों नहीं क्योंकि वो सीट बटवारे खरीद फरोख्त नहीं करती? क्योंकि वो पैसा लेकर टिकट नहीं बांट रही है? क्योंकि वो समाज के तमाम वर्गो को प्रतिनिधित्व दे रही है? क्योंकि वो रोजगार की बाते कर रही है? क्योंकि वो जात पात की जगह सभी के हित की बात कर रही है? क्योंकि वो पुरे लॉक डाउन में सड़कों पर थी और घर घर घूम रही है? क्योंकि वो बिहार के बंद पड़े उद्योगों को फिर से खोलने की बातें कर रही है ? क्या इसलिए उन्हें मौका नहीं मिलना चाहिए?
जहां तक उनके बिहार की समझ की बातें हैं वहां उनकी जो क्रिया कलाप है उससे उनकी सांस्कृतिक समझ को बेहतर तरीके से परखा जा सकता है। लोगो ने तो उनके कपड़ो और उनके पहनावा तक पर टिपण्णी कर दी। कपडा पहनना, खास रंग का कपडा पहनना, साडी या जींस पहनना, कुर्ता सलवार या धोती पहनना यह इंसान की व्यक्तिगत चॉइस का मामला होता है। इसपर सवाल उठाकर हम अपनी हिन्दू परम्परा और अपने देश के संस्कृति और सभ्यता को शर्मसार कर रहे है। एक वो भी दौर था जब हमारे देश में लोगो के पास पहनने को कपडे नहीं होते थे। महिलाएं तो एक ही साड़ी- धोती में महीने के महीने और साल के साल गुजारती थी। यह कौन से असभ्य दौर में हम जी रहे है जहां किसी लड़की के कपड़ो पर हम सवाल कर रहे है। हम इस कदर गिर गए है। अगर एक लड़की किसी सोच समझ के साथ राजनीति में खड़े होने का प्रयास कर रही है तो हम उसका चरित्र हनन करने लग जाते है। ये हमारी सभ्यता, संस्कृति व् बिहार के गौरव के खिलाफ है। बिहार की सभ्यता एक क्रन्तिकारी सभ्यता रही है। क्रांतिकारी बदलाव की हमारी विरासत रही है।
जहां तक बात नयी पार्टी या नेता की है तो किसी समय लालू यादव भी नए थे और किसी वक़्त नीतीश कुमार भी नए ही थे। हमने जब उन्हें मौका दिया तो पुष्पम प्रिया चौधरी को मौका देने में क्या हर्ज है? जहां तक सवाल ग्राउंड को नहीं जानने का है तो मैं पूछना चाहता हूं कि मोदी जी 2014 के पूर्व बनारस को कितना जानते थे? राहुल गांधी वायनाड को कितना जानते थे? या बाहर क्यों जाए शरद यादव मधेपुरा को कितना जानते थे? जॉर्ज फर्नांडिस मुजफ्फरपुर को कितना जानते थे? कोई भी व्यक्ति देश में कही से भी चुनाव लड़ सकता है। पुष्पम प्रिया चौधरी तो बिहार की बेटी है। यह सवाल उठाने से पहले हमें यह सोचने की जरुरत है कि पुष्पम प्रिया चौधरी बिहार में चुनाव क्यों ना लड़े? क्या युवाओं का राजनीति में आना और अपने आप को योग्य घोषित करना गुनाह है ?
आज जब हर दल में युवा और महिला रोते हुए सड़को पर है लगभग हर पार्टी में युवाओ का शोषण किया जा रहा है। ऐसे समय में यह मानते हुए की पुष्पम प्रिया चौधरी आने वाले समय में अपने वादों पर कितना खरी उतरेंगी इसका मूल्यांकन अभी संभव नहीं। बिहार ने लालू यादव पर भी भरोसा किया और नितीश कुमार पर भी। ऐसे में पहली बार प्लुरलस पर भरोसा किया जा सकता है।
बिहार सामरिक, भौगोलिक, राजनितिक, आर्थिक और संसासन की दृष्टि से महत्वपूर्ण राज्य है। आज न तो कोई पार्टी या नेता हमारे संसाधनों का उपयोग करना जानता है न ही कोई संसाधनों का वितरण करना जानता है। ऐसी स्थति में अगर प्लुरलस के पास एक ब्लूप्रिंट है तो प्लुरलस निश्चित तौर पर एक विकल्प है। अगर हम ऐसा करते है तो हम न सिर्फ सदियों से चली आ रही जात-पात की परम्पराओ को तोड़ेंगे बल्कि हम परिवारवाद की परम्पराओ को भी तोड़ेंगे। पुष्पम प्रिय चौधरी बिहार के मानव संसाधन के इस्तेमाल को अच्छी तरह समझती है और उसके इस्तेमाल करने की बात करती है, यही नहीं वो हमारे संस्कृति को भी बखूबी समझती है। पुराने और नए कामो की तुलना करना भी जानती है। बिलकुल संभव है की वो हमारे संसाधनों का सही इस्तेमाल करे। एक स्वक्छ राजनीति के तौर पर हमें ऐसे ही चेहरे की जरुरत है. प्लुरलस पार्टी ने कैंडिडेट्स की जो लिस्ट जारी की है उसकी काफी चर्चा हो रही है। कैंडिडेट्स की जाति की जगह उनका व्यवसाय और धर्म की जगह बिहारी यह बहु-प्रतीक्षित स्वागतयोग्य कदम है जिसकी बात तो सभी पार्टियां करती है लेकिन यह सिर्फ उनके भाषणों और कागजो तक ही सीमित रहा है। जाति हमारे देश और राज्य की सच्चाई है। लेकिन ये भी सच है की जाति और धर्म से बंधे रहकर हम देश और राज्य की तरक्की नहीं कर सकते। तो ऐसे जंक्चर पर जब लोग जाति जाति के नाम पर टुकड़ो टुकड़ो में बंट रहे है, अपने ही जाति के लोग अपनी जाति की भलाई नहीं कर रहे है। ऐसे समय में अगर कोई जातिविहीन समाज की परिकल्पना कर रहा है और इस दिशा में काम कर रहा है तो ये स्वागतयोग्य कदम है। रही बात धर्म की तो धर्म एक व्यक्तिगत मामला है और व्यक्तिगत मामले को कभी भी राजनीती में घालमेल नहीं करना चाहिए। अगर प्लुरलस या पुष्पम प्रिय चौधरी की सोच जातिविहीन समाज की है तो ये कदम बिहार के हित में है। अगर उनकी सोच और व्यावहारिक राजनीति में तालमेल रहा तो बिहार की तरक्की में सहायक होगा। पुष्पम प्रिया चौधरी स्वयं भी बांकीपुर और बिस्फी से चुनाव लड़ रही है जहां इनकी जाति का कोई अंकगणित नहीं है। बिहार की राजनीति से जातिवाद को हटाने का एक ईमानदार प्रयास है जिसकी सराहना होनी चाहिए।
बिहार की जनता को आज यह तय करना होगा कि उनको किससे क्योँ और कैसे लड़ना है? जिस दिन बिहार की जनता ने यह तय कर लिया उस दिन वो अपनी पार्टी और अपना नेता खुद चुन लेगी। किसी भी पार्टी को पता नहीं की दिशा और लक्ष्य क्या है , बस किसी तरह जीत जाना है इसको मार कर, उसको बेच कर, उसको काट कर। अभी तो यही चल रहा है बिहार में। आज बिहार को धनबल, बाहुबल और नैतिकताविहीन राजनीति का अखाडा बना दिया गया है। ऐसी स्थिति में हमें एक विकल्प की ओरे देखना चाहिए। माना पुष्पम एक राजनितिक परिवार से आती है लेकिन उनका अपना एक व्यक्तित्व है, एक अपना स्वतंत्र अस्तित्व है। उनको उनके पिता के कारण नहीं जाना जाता है बल्कि उनके पिता को बेटी के कारण राष्ट्रीय फलक पर पहचान है। एक युवा, बिहारी और एक जिम्मेवार नागरिक होने के नाते हमें गर्व होना चाहिए कि धनबल, बाहुबल और नैतिकताविहीन राजनीति का अखाड़ा बने बिहार राजनीति के मैदान में बिहार की बेटी हिम्मत के साथ खड़ी है।
(लेखक- पीयूष रंजन झा, लेखक जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से स्कूल ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज से पीएचडी कर रहे है। ये लेखक के निजी विचार हैं। )
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