पटना हाई कोर्ट ने नगर निकायों के चुनाव में जातिगत आरक्षण को गलत मानते हुए चुनाव पर रोक लगा दी है। यह बिल्कुल उचित है। जाति का आधारक्षेत्र गांव है। शहरीकरण का अर्थ ही है एक नई सामाजिक आर्थिक व्यवस्था में प्रवेश। किसी देश के विकास का एक पैमाना उसका शहरीकरण भी होता है। जब शहरों में भी जाति है, तब उसे नगर नहीं घोषित किया जाय। वहां मुखिया के चुनाव हों और जातिगत आरक्षण भी हो। इसमें कोई गलती नहीं है।
अनुसूचित जातियों का आरक्षण जातिगत से अधिक सांप्रदायिक है, उसकी जड़ें ब्रिटिश राज के कम्यूनल अवार्ड में है। यदि उस तरह का आरक्षण बिहार सरकार करना चाहती है तो उसे संविधान में संशोधन करवाना होगा।
नगरों का निर्माण केवल भौतिक ढांचे से नहीं होता। उसके लिए मानसिकता विकसित करनी होती है। यह सही है कि बिहार में ऐसी मानसिकता का विकास नहीं हुआ है और यहां के अधिकांश नगर अपनी चेतना के स्तर पर गांव ही हैं।
बहुत पहले बिहार के मशहूर समाजशास्त्री और समाजवादी नेता नर्मदेश्वर बाबू ने एक सभा में जब कहा था कि पटना एक बहुत बड़ा गांव है तब उसके गहरे अर्थ थे। सुना है लोहिया जी भी उस सभा में थे। आज लोहिया जी और नर्मदेश्वर बाबू होते तो हाई कोर्ट के फैसले का स्वागत करते।
बंदरों के हाथ में नारियल मिल जाता है तो ऐसी ही हरकत होती है जैसी बिहार सरकार ने की है। यदि करना ही था तो, एकल पदों पर आरक्षण करने के पहले आवश्यक कानूनी प्रावधानों को पूरा करना चाहिए था। हाई कोर्ट के फैसले को ध्यान में रखते हुए संबंधित सरकारी अधिकारियों पर कार्रवाई होनी चाहिए, जिन्होंने इसे हरी झंडी दी थी।
लेखक- प्रेमकुमार मणि