औरंगाबाद(लाइव इंडिया न्यूज 18 ब्यूरो)। जुगनू शारदेय नहीं रहे। सोशल मीडिया पर उनके निधन की सूचना छायी हुई है। जुगनू शारदेय चले गये। अपने जमाने के नामी पत्रकार। स्वाभिमानी और संयत पत्रकार। औरंगाबाद के लाल थे लेकिन उनके कलम की हनक बिहार की राजधानी पटना और देश की राजधानी दिल्ली से लेकर बॉलीवुड तक थी। उनको जानने वालो की बातों में ही उनका पूरा व्यक्तित्व झलकता है।
प्रभात खबर के कोलकाता संस्करण और राष्ट्रीय सहारा के पटना संस्करण के संपादक रहे वरिष्ठ पत्रकार ओमप्रकाश अश्क उनके निधन पर लिखते है कि अंतिम दिनों में उनका अकेलापन, उनके जाने से दुखी नहीं करता। इसलिए कि अकेलापन आदमी की सबसे बड़ी पीड़ा है। उनके निधन के बाद सोशल मीडिया पर स्मृति शेष टिप्पणियों की भरमार लगी है।
पत्रकार और संप्रति फिल्मी दुनिया से सरोकार रखने वाले अविनाश दास उनके बारे में लिखते हैं कि जुगनू शारदेय जी के निधन की सूचना अभी-अभी मिली है। उनसे मेरी पहली मुलाक़ात पटना में हुई थी। उस वक़्त तक पटना मैं छोड़ चुका था और किसी यात्रा में वह टकरा गये थे। नीतीश कुमार की सरकार थी और सरकार के कामकाज की तीखी आलोचना से भरे हुए नज़र आये। एक साथी थे, जिन्होंने तंज भी कसा कि आप तो उनके ही फ़्लैट में रहते हैं और उनका ही विरोध करते हैं। उन्होंने दो टुक जवाब दिया था कि मुझे एक छत देकर उसने मेरी ज़मीर थोड़े ही ख़रीद ली है! बाद में जुगनू जी से अच्छी-ख़ासी मित्रता हो गयी और अतिरिक्त इज्जत देने पर अक्सर वो इज्जत उतारते हुए नज़र आये। उन्हें गवारा नहीं था कि उन्हें उम्रदराज माना जाए। मुंबई में कुछ दिन मेरे पास रहे, जब मैं मढ़ गांव में अपने दोस्त रामकुमार के साथ दो कमरों के एक घर में रहता था। मुझसे खिचड़ी बनवाते थे और थाली में ऊपर से सरसों का कच्चा तेल डलवाते थे। मुंबई से उनके लौटने के बाद उनसे एकाध बार फ़ोन पर बात हुई, लेकिन पिछले कुछ सालों से हम एक दूसरे के संपर्क में नहीं थे। उनके बीमार होने और वृद्धाश्रम में अंतिम वक़्त गुज़ारने की सूचना मिलती रही। मुझे अफ़सोस है कि मैं इस उत्तर-जीवन में उनके कोई काम नहीं आ पाया। वह साहसी पत्रकार थे और उन्होंने अंतिम समय तक अपनी रीढ़ सीधी रखी। ऐसी दुर्लभ प्रजाति अब पत्रकारिता में शायद ही हम देख पाएं। जुगनू शारदेय को मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।
लेखक-पत्रकार निराला विदेशियां लिखते हैं कि जुगनू भइया नहीं रहे। इस नश्वर संसार को अलविदा कर गये। जुगनू भइया यानी जुगनू शारदेय। अपने बिहार के चर्चित पत्रकार। हनक और धमक रहती थी उनकी। हमेशा लोगों के बीच रहनेवाले, लोगों के बीच ही रहने की ख्वाहिश रखनेवाले, बोलते रहनेवाले, जुगनू भइया पिछले कुछ सालों से एकाकी जीवन गुजार रहे थे। बीमारियों के साथ। बीमारियों से ज्यादा पीड़ादायी यही था कि उनके जैसा आदमी, एकदम से सबसे कटकर अकेला, अलग-थलग पड़ गया है। इस लिहाज से उनका जाना दुखद खबर नहीं। वरिष्ठ पत्रकार और जुगनू भइया के करीबी साथी अनुराग चतुर्वेदी सर और जुगनू जी को बेपनाह चाहनेवाले उनके मित्र श्रीकांत भइया से हमेशा उनकी खबर मिलती थी। जुगनू भइया हमारे जिला-जवार के थे। औरंगाबाद के। हम जब भी बात करते, मगही में ही बतियाते थे। वे हिंदी में भले ही झारकर, कठोर बोलते हों कभी भी, पर अपनी भाषा मगही में मुलायमियत के साथ बतियाते थे। आमने-सामने की उनसे आखिरी मुलाकात पटने में आयोजित शिवानंद तिवारी जी के उस फंक्शन में हुई थी, जिसका आयोजन उनके सक्रिय संसदीय या चुनावी राजनीति से संन्यास की घोषणा बाद किया गया था। उस दिन भी जुगनू भइया अपने रंग में थे। पूरे रंग में। उनसे आखिरी बहस ‘नदिया के पार’ फिल्म को लेकर हुई थी, जिसमें उनके कहे से मैं सहमत नहीं था। वे अपने तर्कों के साथ जिद पर, मैं अपने तथ्यों के साथ जिद पर। ना वे अपनी बात से टकस-मकस कर रहे थे, ना मैं अपनी बात से। कुछ माह बाद उनका फोन आया कि पटने में हो? मैंने कहा कि नहीं भइया। फिर बोले कि औरंगाबाद में हो? मैंने बोला कि नहीं भइया अभी तो नहीं हैं। उन्होंने कहा कि अगर इधर होता तो मिलते और यह कहते कि तुम जो कह रहे थे, वह सही है। यह विवेक आपके अंदर अनुभव से ही आता है कि किसी जूनियर से अगर किसी विषय पर द्वंद या दुविधा हो तो आप जूनियर को अरसे बाद ही सही, यह बतायें कि तुम सही हो। इससे जूनियर में आत्मविश्वास का भाव भी आता है और सीनियर के प्रति सम्मान का भाव भी। जुगनू भइया के जाने का दुख है। जिस तरह से गये, उससे मन दुखी है। पर, यह अच्छा ही हुआ कि वे दुनिया से अपनी ठसक, अपने शान-स्वाभिमान के साथ विदा हुए। बिना समझौता किये।
बिहार की मिट्टी से जुड़े दिल्ली में पत्रकार शिशिर सोनी कहते है कि बिहार के प्रखर पत्रकार जुगनू शारदेय जी के ब्रह्मालीन होने के बाद अपने अपने ड्राइंग रूम में बैठे सजावटी लोग श्रद्धांजलि दे रहे हैं। जब तक वो जिंदा थे दर दर की ठोकरें खाते रहे। तब फेसबुक पर श्रद्धांजलि सभा करने वाले कोई दिखाई नहीं दिये। संसार में अकेले, बिना शादी के बौराने वाले फक्कड़ जुगनू जी कभी पटना रहे, कभी दिल्ली तो कभी मुंबई। जहाँ पनाह मिला, उम्र की इस बेला में वही ठहर लिए। मानवता को शर्मसार करने वाली घटना है, जुगनू जी की लावारिस मौत। मेरा परिचय दैनिक भास्कर में उनके लगातार लिखने, दफ्तर आने जाने के क्रम में हुआ। अंतिम नौकरी उन्होंने राम बहादुर राय के सानिध्य में हिंदुस्तान समाचार की पत्रिका में की। वहां से विदा हुए तो मानो पैदल हो गए। दिल्ली छूटा। पटना पहुंचे। हम सभी पत्रकारों के कंधे पे कोई नेता हाथ रख दे तो हम उसे अपना खैर ख़्वाह मानने की भूल करते हैं। लगातार करते हैं। फलां हमारा मित्र है, अभी फोन करता हूं, काम हो जायेगा… ऐसी हवा बनाते हैं। बुलबुले को हकीकत समझते हैं। हकीकत में नेता किसी के नहीं होते। जुगनू जी भी खुद को नितीश का मित्र बताते थे। बुरा वक़्त आया तो खुद को अकेला पाया। न नेता, न अभिनेता। न पत्रकार, न फनकार। परिवार में कौन है, पता नहीं। न वो जिक्र करते थे, न मैं पूछता था। दिल्ली छोड़ जब वो पटना गए, किसी के आसरे गए होंगे। सहारा नहीं मिला तो पटना सिटी के गुलजारबाग स्थित वृद्ध आश्रम में रहे। वहीं से उन्होंने फोन कर सारी आपबीती बताई। पता नहीं क्यों मुझ से वो खूब बतियाते थे। बताया कैसे ये आश्रम नहीं पागलखाना है। यहां ज्यादा रहा तो पागल हो जाऊंगा। सुबह एक ही कप चाय मिलती है। पटना सिटी के समाजसेवी प्रदीप काश को फोन कर मैंने उनका ध्यान रखने को कहा। प्रदीप दोस्तों के साथ उनसे मिलने पहुंचे। खूब बातें हुई। कुछ कमी बेसी पूछ ली। पूरी की। अन्य दोस्तों के मार्फत भी ये सिलसिला चलता रहा। एक दिन अचानक पटना का वृद्ध आश्रम छोड़ दिल्ली आ गए। फोन कर बताया कि राम बहादुर राय जी की मदद से गांधी प्रतिष्ठान में ठहरा हूं। उस समय मैं दिल्ली से बाहर था। लौट कर आया तब तक वे गांधी प्रतिष्ठान से जा चुके थे। उनके कुछ कॉल्स मैं मिस कर गया। अब उनको मिस कर रहा हूं। किस अवस्था में कहां उन्होंने अंतिम सांसें ली, कोई जानकारी नहीं। मगर, हम पत्रकारों की यही व्यथा है। कहने को लोकतंत्र का चौथा खंभा। न कोई सोशल सेकुरिटी है, न नौकरी के बाद गरिमापूर्ण जिंदगी जीने के साधन। हम नून तेल के जुगाड़ में कब अधेड़ हो जाते हैं, पता ही नहीं चलता। कब, कौन सी बीमारी के वाहक हो जाते हैं, इल्म ही नहीं होता। हम लोकतंत्र के लावारिस प्रहरी हैं। जिसे टेनी जैसे नेता जब चाहे गरिया दें। जब चाहे मरवा दें। उस पाले में ढेंगरा रहे हमारे पत्रकार मित्र भी खबर दिखाने से बचेंगे। खबर लिखने से बचेंगे। अपनी बारी की प्रतीक्षा करेंगे। खंड खंड में विभक्त रहेंगे। ड्राइंग रूम से श्रद्धांजलि देते रहेंगे। श्री राम नाम सत्य है…।
समाजवादी सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता संजय रघुवर कहते है कि फेसबुक पर चर्चित पत्रकार उर्मिलेश जी के आलेख से जानकारी मिली थी कि कभी समाजवादी आंदोलन में युवजन सभा के माध्यम से सक्रिय रहे तथा लोकनायक जयप्रकाश आंदोलन के प्रमुख स्तंभ रहे वरिष्ठ पत्रकार जुगनू शारदेय इस दुनिया में नहीं रहे। समाजवादी आंदोलन के जमाने के एवं देश के महान समाजवादी नेता राज नारायण एवं जननायक कर्पूरी ठाकुर के निकटतम सहयोगी रहे उदय भान जी ने मेरे व्यक्तिगत व्हाट्सएप पर समता मार्ग में प्रकाशित श्रवण गर्ग एवं अनिल सिन्हा का आलेख मुझे भेजा। आलेख पढ़कर मन में काफी वेदना हुई। जन्म और मृत्यु तो प्रकृति का शाश्वत नियम है जो आया है उसे एक दिन दुनिया से जाना है। पर जिन परिस्थितियों में जुगनू शारदेय की मौत हुई वह हृदय विदारक है। हृदय विदारक इसलिए है कि विगत वर्षों से जुगनू कैंसर की बीमारी से जीवन और मृत्यु से जूझ रहे थे। पिछले कुछ महीना पूर्व देश के वैचारिक पत्रकारों ने एवं सामाजिक कार्यकर्ताओं ने बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को संयुक्त हस्ताक्षरित पत्र भेजकर यह आग्रह किया था कि श्री जुगनू के रहने के लिए एक सरकारी आवास तथा समुचित चिकित्सा की व्यवस्था की जाए।लेकिन नीतीश कुमार ने किसी भी प्रकार का संज्ञान नहीं लिया। यही कारण था कि श्री जुगनू गढ़मुक्तेश्वर एक वृद्ध आश्रम में आश्रय लिए हुए थे। जहां सामाजिक कार्यकर्ता राजेंद्र रवि यदा-कदा उनके संपर्क में थे। जब राजेंद्र रवि ने किसी एक मित्र को श्री जुगनू के हाल-चाल जानने के लिए वृद्धाश्रम में भेजा तो जानकारी दी गई कि उनकी मृत्यु हो गई है और उनका अंतिम क्रिया कर दिया गया है। मुझे पीड़ा इसलिए है कि आज पत्रकारिता के नाम पर ब्लॉक लेवल पर भी जो लोग काम करते हैं।उनके पास चार चक्के वाली गाड़ी होती है। उनका जीवन ऐसो आराम का होता है। आज जब पंचायत का व्यक्ति मुखिया या फिर पंचायत समिति बनता है तो दूसरे ही दिन उसके दरवाजे पर स्कॉर्पियो गाड़ी आ जाती है। वही स्वर्गीय जुगनू जैसे लोग जो समाजवादी आंदोलन के जमाने में युवजन सभा के राष्ट्रीय कार्य समिति के सदस्य थे। वह डॉ. राम मनोहर लोहिया का जमाना था। लोकनायक जयप्रकाश के नेतृत्व में चली आंदोलन के अग्रणी लोगों में एक थे। जिनके मित्रवत संबंध आज के सत्तापक्ष और विपक्ष के बड़े नेताओं के साथ थे। पत्रकारिता जगत में धर्मवीर भारती, गणेश मंत्री, रघुवीर सहाय जैसे लोगों से उनके मित्रवत संबंध थे। महान कथाकार फणीश्वर नाथ रेणु जैसे लोगों से उनके संबंध बेहद अच्छे एवं पारिवारिक थे। इसके बाद भी वह इतना भी साधन एकत्रित नहीं कर पाए कि वह कहीं आराम से कमरा में भी रह सके और उनके मरणोपरांत सम्मान के साथ अंत्येष्टि की क्रिया हो सके। निश्चित रूप से देश और समाज के लिए यह चिंता का विषय है कि चाहे राजनीति हो चाहे पत्रकारिता हो या साहित्य या कला का क्षेत्र हो अब वहां मानवीय संवेदना नहीं बची। यदि मानवीय संवेदना होती तो ख्यातिलब्ध पत्रकार जुगनू शारदेय का दुखद अंत नहीं होता। यदि राजेंद्र रवि अपने किसी मित्र को वृद्धाश्रम में नहीं भेजे होते तो लोगों को जानकारी भी नहीं होती कि जुगनू अब इस दुनिया में नहीं रहे। मैं उनके निधन पर गहरी संवेदना व्यक्त करते हुए श्रद्धा सुमन अर्पित करता हूं।
औरंगाबाद के वरीय पत्रकार प्रेमेंद्र मिश्र कहते है कि नहीं रहे जुगनू शारदेय। दिल्ली के एक वृद्ध आश्रम में कुछ दिनों से भर्ती बीमार वृद्ध का 14 दिसंबर को निधन हो गया जिसे आश्रम वालों ने लावारिस समझकर उसका अंतिम संस्कार कर दिया। दुनिया को तब पता चला जब सामाजिक कार्यकर्ता राजेंद्र रवि उनका हाल लेने वृद्ध आश्रम पहुंचे और पाया कि उनका गुमनामी में निधन हो चुका है और लावारिस समझकर उनका अंतिम संस्कार भी कर दिया गया है। यह वही जुगनू शारदेय हैं जो कभी दिनमान और धर्मयुग जैसी पत्रिकाओं के संपादन से जुड़े रहे थे। यह वही जुगनू शारदे हैं जिनकी लेखनी के पूरे भारत भर में प्रशंसक थे, यह वही जुगनू शारदेय हैं जो मधु लिमए और जॉर्ज फर्नांडिस के पक्के यार थे, यह वही जुगनू शारदेय थे जिन्हें धर्मवीर भारती, कमलेश्वर, फणीश्वर नाथ रेणु जैसे लोग बहुत इज्जत देते थे, यह वही जुगनू शारदेय है जिनसे कभी नीतीश कुमार, लालू यादव और समाजवादियों की पूरी एक पीढ़ी सलाह मशवरा करती रही…..। हां वही जुगनू शारदेय जो हिंदी पत्रकारिता की जगत का चमकता सितारा था जो इस तरह 72 वर्ष की उम्र में डूब गया। जुगनू शारदेय उर्फ़ रामचंद्र प्रसाद गुप्ता बिहार के औरंगाबाद जिले के शाहपुर मोहल्ले के निवासी थे। यहां उनकी नानी का घर था और वहीं पर उनके पिता आकर बस गए थे। जुगनू शारदेय ने अपनी हायर सेकेंडरी तक की शिक्षा औरंगाबाद से ही प्राप्त की। औरंगाबाद के लोक अभियोजक और जाने-माने अधिवक्ता पुष्कर अग्रवाल उनके बचपन से सहपाठी थे। अनुग्रह मिडिल स्कूल और उसके बाद गेट स्कूल से इन दोनों ने साथ साथ पढ़ाई की। हायर सेकेंडरी के बाद रामचंद्र प्रसाद गुप्ता औरंगाबाद शहर छोड़ कर बाहर चले गए और बाद में साहित्य के आकाश में जुगनू शारदेय बनकर उभरे। उनके भाई आज भी औरंगाबाद में सब्जी मंडी के समीप खाद की दुकान चलाते हैं। जुगनू शारदेय एक जमाने में ऐसे पत्रकार थे जिनके इशारे मात्र से बड़े-बड़े नेता और ओहदेदार अधिकारी कुछ भी कर सकते थे लेकिन कभी भी जुगनू शारदेय ने रिश्तों का दुरुपयोग नहीं किया। कभी-कभी जुगनू औरंगाबाद भी आते थे और यहां बड़ी गुमनामी से रहकर अपने मित्र पुष्कर अग्रवाल के साथ सुख दुख बतिया जाते थे। कुछ साल पहले मेरा उनसे संपर्क हुआ था और कभी कभी फोन पर बातें होती थी। वह बातचीत में औरंगाबाद के पुराने दिनों की चर्चा करते थे और अपने मित्र पुष्कर अग्रवाल के बारे में जरूर पूछा करते थे। उन्होंने मुझे कभी नहीं बताया अपने परिवार के बारे में। मुझे नहीं पता था कि उनके भाई की यहां पर खाद की भी दुकान है। मुझे यह जानकारी बाद में पुष्कर अग्रवाल जी ने दी थी। वे अविवाहित रहे। पिछले साल जब कोविड-19 चरम पर था, उस वक्त मेरी उनसे अंतिम बातें हुई थी। वह पटना में थे और उन्होंने हांफती हुई आवाज में कहा था कि उनकी तबीयत ठीक नहीं रह रही है और वह काफी परेशान हैं। मैंने उनसे सहयोग की पेशकश की लेकिन उन्होंने रुखा सा जवाब दिया था-मेरे पास व्यवस्था है। लगभग एक डेढ़ साल के बाद यह सूचना मिली कि वे गुमनामी में गुजर गए। जुगनू शारदेय औरंगाबाद और बिहार की शान थे। उनके निधन पर उन्हें जानने वाले बेहद मर्माहित हैं और यह औरंगाबाद जिले की तथा बिहार की एक बड़ी बौद्धिक क्षति है।
आश्यर्च की बात है कि जुगनू शारदेय के निधन पर औरंगाबाद में मात्र एक शोकसभा हुई, वह भी ऑनलाइन। ऑनलाइन शोकसभा शहर की साहित्यिक संस्था “साहित्यकुंज” ने की और औरंगाबाद के निवासी एवं देश के लब्ध प्रतिष्ठित पत्रकार, कवि, कथाकार एवं लेखक जुगनू शारदेय के आकस्मिक निधन पर शोक जताया। शोकसभा में वरीय पत्रकार अनामी शरण “बबल” कमल किशोर श्रीवास्तव(औरंगाबाद), एवं वरीय शिक्षक श्रीराम रॉय ने स्वर्गीय जुगनू शारदेय को एक निर्भीक व ईमानदार, पत्रकार बताते हुए कहा कि जुगनू शारदेय का निधन पत्रकारिता जगत एवं हिन्दी साहित्य के लिए अपूरणीय क्षति है। शोकसभा में पटना के वरीय कवि व कथाकार अरविन्द अकेला ने कहा कि जुगनू जी पत्रकारिता जगत में औरंगाबाद जिला के लिए शान थे। उनकी बातों में स्पष्टवादिता एवं अक्खड़पन था। शोकसभा में अनिल चंचल(मुम्बई), डॉ. अजय कुमार सिन्हा(कानपुर), डॉ. ब्रजेन्द्र नारायण द्विवेदी “शैलेश”(वाराणसी),
भारती जोशी(हरिद्वार),
निर्मल जैन(जौनपुर),
नेतलाल यादव (गिरीडीह), जनार्दन शर्मा एवं वरीय कवयित्री सुषमा सिंह ने स्वर्गीय शारदेय के प्रति अपनी विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित की।