पॉलिटकल थ्रिलर तरह है राजेन्द्र राजन का उपन्यास ‘लक्ष्यों के पथ पर’

पटना। प्रगतिशील लेखक संघ के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव राजेंद्र राजन के नए उपन्यास ‘ लक्ष्यों के पथ पर’ पर विमर्श का आयोजन गांधी संग्रहालय में किया गया। ‘अभियान सांस्कृतिक मंच’के बैनर तले आयोजित इस विमर्श में पटना तथा दूसरे शहरों के साहित्यकार, बुद्धिजीवी, सामाजिक कार्यकर्ता उपस्थित थे। विमर्श में उपन्यास के विभिन्न पहलुओं, आयामों पर बातचीत हुई। वक्ताओं ने बताया कि ‘लक्ष्यों के पथ पर’ के माध्यम से हम हम बेगुसराय और बिहार के राजनीतिक इतिहास से भी परिचित हो सकते हैं। आगत अतिथियों का स्वागत जयप्रकाश ने किया जबकि संचालन गजेन्द्रकांत शर्मा ने किया।

कथाकार सन्तोष दीक्षित ने ‘लक्ष्यों के पथ पर’ पर अपने विचार प्रकट करते हुए कहा ” ‘ लक्ष्यों के पथ पर’ आत्मकथात्मक उपन्यास है ऐसा कोई संकेत नहीं मिलता। कथ्य के नएपन से उपन्यास हमें आकर्षित करता है। यह उपन्यास जीवनीपरक ज्यादा है। सामंतवादी संस्कार से नायक किस प्रकार लड़ता है, सामाजिक ऊंचनीच से कैसे लड़ता है इसकी जीवंत कहानी है ‘ लक्ष्यों के पथ पर’। जेपी आंदोलन के लेकर जयप्रकाश नारायण को लेकर एक राय प्रकट करने की कोशिश उपन्यास में कई गई है। सर्वोदय को लेकर टिप्पणी है कि मालिक व मज़दूर दोनों का उदय कैसे हो सकता है? बाजितपुर की घटना और उसके बाद भी बहुत अच्छे ढंग से लिखा गया है। छोटे-छोटे प्रसंगों के जरिये कई महत्वपूर्ण बातों को ‘लक्ष्यों के पथ पर’ सामने लाता है। “

पटना विश्विद्यालय में हिंदी विभाग के अध्यक्ष तरुण कुमार ने बातचीत में टिप्पणी करते हुए कहा ” जीवन के तर्क और साहित्य के तर्क एक ही नहीं होती। इस किताब में मुझे जीवन ज्यादा नजर आया । उनके पास अनुभव का जो विराट संसार है। एक बेचैनी वाले रचनाकार नजर आते हैं राजेंद्र राजन । यह उपन्यास आत्मविवेक, आत्मसमीक्षा की कोशिश करती दिखाई देती है। कम्युनिस्ट आंदोलन भी कई बार आत्ममुग्धता का शिकार दिखाई देता है। मेरे गांव में 1976-77 में ‘ इंतकाम नहीं इंक्लाब चाहिए’ नाटक खेला गया था जो राजेंद्र राजन जी का लिखा गया था। बेगुसराय बिहार का मान-सम्मान बढाने वाली जगह है। छायावाद की ताकत व कमजोरी कामायनी को मानी जाती है। ठीक उसी प्रकार प्रतिबद्ध लेखन की ताकत व सीमाओं का एहसास कराती है “लक्ष्यों के पथ पर’। सिर्फ राजनीतिक लेखन ही प्रतिबद्ध लेखन नहीं होता। जीवन के राग से प्रतिबद्ध होना ज्यादा बड़ी बात है। उपन्यास भी भाषा की शिथिलता दिखाई पड़ती है लेकिन उससे प्रभाव में कोई फर्क नहीं पड़ता। एक औपन्यासिक कृति पाठक में दिलचस्पी बनाये रखे इस उत्सुकता जगाए रखे तो वह कहानी व उपन्यास के नजदीक तो जरूर है। कोई कृति अंततः अपनी ही है कहानी होती है। ऐसी कृति जो पढ़ने को विवश करे, ऐसी ही कृति है ‘लक्ष्यों के पथ पर’।”

बिहार प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव रवींद्रनाथ राय ने कहा ” राजेन्द्र राजन के उपन्यास की कथा बेगुसराय की पृष्ठभूमि जनपद है। बेगुसराय भूमि संघर्षों की जमीन रही है। सामन्तों की गुंडवाहिनी द्वारा किस प्रकार रक्तरंजित लड़ाइयां करती है। एक ओर कांग्रेस की पतनशील संस्कृति है, बूथ कैप्चरिंग की घटना है दूसरी ओर कम्युनिस्टों की बड़े पैमाने पर कुर्बानी होती है। चन्द्रशेखर सिंह व सूर्यनारायण सिंह सरीखे त्यागी कम्युनिस्ट नेताओं की चर्चा उपन्यास में होती है । कम्युनिस्टों की बाहरी व भीतरी दुनिया एक थी वे एक बेहतर दुनिया का सपना लेकर संघर्ष कर रहे थे। गांव के इर्द-गिर्द को लेकर बुने गए इस उपन्यास में बेहद जीवंतता के साथ वर्णन किया है। संघर्ष के प्रति किसानों-मज़दूरों की ललक व संघर्ष की भावना को उपन्यास व्यक्त करता है। जनांदोलन के दौरान रचनाकार न तो कम्युनिस्टों के प्रति और न अपने परिवार के प्रति आत्ममुग्ध है । प्रेम का राग-विराग है तो बेदखली के विरुद्ध संघर्ष है, तस्करों के खिलाफ संघर्ष के साथ -साथ बेगुसराय के जनजीवन की चर्चा उपन्यास में दिखाई देता है। उपन्यास के नायक मनोहर के हत्या से उपन्यास खत्म होता है। उपन्यास यथार्थवादी शैली पर लिखा गया है जिसमें कल्पना नहीं है। “

माकपा सेंट्रल कमिटी के सदस्य अरुण मिश्रा ने अपने संबोधन में कहा ” यह उपन्यास एक पॉलिटकल थ्रिलर की तरह लगता है। एक श्वास में पढ़ जाने की उत्सुकता बनी रहती है। उपन्यास बताता है कि जब हम वैचारिक धरातल पर कमजोर पड़ते है उसका कितना बुरा प्रभाव पड़ता है। संघर्ष की हिफाजत के लिए संघर्ष के किसी भी प्रकार को अपनाने का अधिकार है। इसके लिए जरूरी है कि राजनीतिक चेतना मौजूद रहे। विचारधारा ही हर संघर्ष को नियंत्रित कर यह बात साफ होने चाहिए। आजकल तो धर्म संसद के माध्यम से नरसंहार की वकालत के जा रही है। ऐसे में मनोहर की तरह झुंड के सामने खड़ा होने की जरूरत है। “

अवकाश प्राप्त पुलिस अधिकारी राज्यवर्द्धन शर्मा ने अपने संबोधन में कहा ” लेखक का दायित्व है कि कलात्मक सौंदर्य के नाम पर सत्य को तोड़ा मरोड़ा न जाये। मैं खुद उपन्यास का एक पात्र भी मैं हूँ। तथ्यों के निकट रहकर बहुत सही लिखा है राजेन्द्र राजन। मैं कम्युनिस्ट लोगों से इस बात से प्रभावित रहता हूँ कि वे रुपये-पैसे के मामले में बहुत ईमानदार रहा करते हैं। केरल को देखता हूँ तो वहां धार्मिक-जातीय तनाव काफी कम है। यदि उपन्यास में विधवा विवाह करा दिया होता तो मेरे ख्याल से ज्यादा अच्छा होता। उपन्यास का अंत नायक की हत्या से होता है लेकिन यदि सकारात्म सन्देश जाता तो बेहतर होता। वैसे राजन जी ने काफी अच्छी किताब लिखी है। जब जनांदोलन होता है तो नेता पैदा होते हैं। गुंडे, माफिया इस कारण आ रहे हैं कि आंदोलन नहीं हो रहा है। चिंतन व आंदोलन दोनों साथ-साथ होना चाहिए । “

विश्विद्यालय व महाविद्यालय कर्मचारियों के राष्ट्रीय नेता प्रो अरुण कुमार ने उपन्यास पर अपनी राय प्रकट करते हुए कहा ” जब उपन्यास मैंने पढ़ा तो लगा कि अपनी कहानी पढ़ रहा हूँ। यह उपन्यास केवल बेगुसराय के वामपंथ की कहानी नहीं है बल्कि वामपंथ जब उभार के दौर में था तब की कहानी है। आखिर क्यों बेगुसराय को लेनिनग्राड कहा जाता है इस बात को उपन्यास सामने लाता है। उपन्यास लिखने में लेखक की छटपटाहट यह है कि अपने दौर के जिस उत्कर्ष को देख रहे हैं उसके पराभव को भी देख रहे हैं। उपन्यास में कैसे राष्ट्रीय क्षितिज पर आए थे तथा कैसे उसमें गिरावट आई। उन्होंने अपनी आलोचना को भी निर्ममता से किया है। लगता है कि अंत थोड़ी हड़बड़ी में किया गया है।”

चर्चित कवि सत्येंद्र कुमार ने अपने कहा ” आज सबसे बड़े संकट से गुजर रहे हैं ऐसे में लेखक सत्ता के साथ एडजस्टमेंट की कोशिश करता दिखाई पड़ता है लेकिन यह उपन्यास विचार के विचलन को दिखाता है। मनोहर की हत्या क्या इस बात को दर्शाता है कि आगे का रास्ता क्या बंद है। आप कितने भी बड़े लेखक हैं लेकिन यदि आप उस वक्त खड़े नहीं होते तो आप लेखक नहीं है। आप आंदोलन को कैसे चलाएंगे इसे लेकर हवाबाजी नहीं है। संकट के वक्त पूरे देश में साम्प्रदायिक फासीवाद के खिलाफ घूम-घूम कर विरोध को संगठित किया था वह कोई सामान्य बात नहीं है।”

प्रगतिशील लेखक संघ की कार्यकारी अध्यक्ष सुनीता गुप्ता ने कहा ” बेगुसराय ऐसी धरती है जहां राजनीतिके साहित्यिकी चेतना की जननी रही है। इसे संस्मरण की तरह और इतिहास की तरह भी पढ़ा जा सकता है। इन उपन्यास में कुछ थोड़े से नामों को छोड़ दिया जाए तो सही है। एक विधा का अतिक्रमण कर दूसरी विधा में प्रवेश कर जाता है उपन्यास। कई जगह निबंधों की शैली में बात की है जैसे स्टालिन पर वे विचार प्रकट करते हैं। उपन्यास में कहीं भी विराम नहीं है। आपको हांफ-हांफ के भी पड़ता है। मनोहर का एक होलटाइमर के रूप में क्या सपना है इसे चित्रित करता है। पत्नी प्रसवपीड़ा से पीड़ित है, खाने के पैसे नहीं हैं, जान पर खतरा है। ऐसे में किस प्रकार वह संघर्ष करता है। एक समतामूलक समाज की स्थापना का सपना। 17 वीं शताब्दी में प्लेग को टाउन दीदी के टीले से जुड़ी स्मृतियां इसे कोरोना काल से भी जोड़ती है। मनोहर प्राचीन रूढ़ियों से बंधकर नहीं सोचा। एक विधवा स्त्री के सतह कैसी परेशानी आती है उसे साफ रखा गया।”

सामाजिक कार्यकर्ता सुनील सिंह ने ‘लक्ष्यों के पथ पर’ पर अपनी राय प्रकट करते हुए कहा ” यह उपन्यास लीक छोड़ चलने की कहानी है। पाठक का काम है कि उपन्यास को पढिये किताब घटनाओं का सिर्फ संस्मरण ही नहीं है।किताब के शुरू के अंत तक विचार प्रभावी रहा है। ताउन का टीला अंधविश्वास के कारण ले जाया जाता है। ‘लक्ष्यों के पथ पर’ हमें विचारधारा व संगठन के महत्व को स्थापित करता है।”

प्रगतिशील लेखक संघ के पूर्व राष्ट्रीय महासचिव राजेन्द्र राजन ने कहा ” अजेय ने कहा लेखक अपनी रचनाओं से अलग कैसे रह सकता है ? कई लोगों ने उपन्यास पर लिखा है अपनी राय को प्रकट किया है। जो सवाल उठाए गए हैं उनके जवाब भी दिए गए हैं। यह बहस का विषय हो सकता है कि यह उपन्यास है या इतिहास। नामवर सिंह ने कहा है समकालीन लेखन हमारे आसपास के जमीन से निकलकर आना चाहिए। यदि निराशा बढ़ी है तो प्रतिरोध की शक्तियां भी बढ़ी है। आखिर यह सवाल तो बनता है कि हिंदी क्षेत्र का कोई साहित्यकार क्यों नहीं मारा गया ? जबकि दक्षिण के कई राज्यों के साहित्यकार व पत्रकार मारे गए।”
अनिल कुमार राय ने कहा ” आपने युग की धड़कन उपन्यास में दिखाई देता है। यह देश काल से बंधा महत्वपूर्ण राजनीतिक इतिहास है लक्ष्यों के पथ पर। एक एक प्रबन्ध काव्य की श्रेणी के रूप में नहीं बल्कि महाकाव्यात्मक श्रेणी में देखता हूं। भविष्य की ओर देखता हुआ है उपन्यास। इस परंपरा को वेग के साथ आगे बढ़ाया है राजेन्द्र राजन ने ।”

अध्यक्षीय वक्तव्य करते हुए आलोकधन्वा ने कहा ” यह उपन्यास तथ्यों पर आधारित है तथा दस्तावेज और साहित्य दोनों है। एक बेहद अवसाद भरे समय में यह उपन्यास आया है जिसमें कम्युनिस्टों की गाथा को चित्रित किया गया है। कम्युनिस्टों से अधिक कल्पनाशीलता व लालित्य कहां दूसरी जगह मिलती है ? ।”
बातचीत को पटना कॉलेज के पूर्व प्राचार्य प्रो नवल किशोर चौधरी, प्रो वसी अहमद, गालिब खान, अनिल कुमार राय आदि ने भी अपने विचार प्रकट किए।

कार्यक्रम में चर्चित इतिहासकार ओ.पी जायसवाल के सन्देश को भी पढ़कर सुनाया गया। कार्यक्रम में बड़ी संख्या में पटना के बुद्धिजीवी, साहित्यकार, रँगकर्मी, सामाजिक कार्यकर्ता आदि मौजूद थे। प्रमुख लोगों में थे संजय चौधरी, अधिवक्ता मदन प्रसाद सिंह, अशोक कुमार सिन्हा, अराजपत्रित कर्मचारियों के नेता मंजुल कुमार दास, एटक के राज्य अध्यक्ष अजय कुमार, शिक्षाविद अक्षय कुमार, अनीश अंकुर , अवनीश राजन, समय सुरभि अनन्त के संपादक नरेंद्र कुमार सिंह, बी.एन विश्वकर्मा, सामाजिक कार्यकर्ता सुनील सिंह, सामाजिक कार्यकर्ता नवेन्दु प्रियदर्शी , फिल्मकार अतुल शाही, कुणाल, गौतम गुलाल , नीरज कुमार, अर्चना त्रिपाठी, कुंदन कुमारी , कपिलदेव वर्मा, गोपाल शर्मा, संजय श्याम, रामबली व्यास, उमा कुमार, बेगुसराय प्रगतिशील लेखक संघ के रामकुमार, प्राथमिक शिक्षकों के नेता भोला पासवान, कमलकिशोर, मनोज कुमार, लड्डू शर्मा, सोनी कुमारी , विनीत राय, महेश रजक, मीर सैफ अली, डॉ अंकित आदि।

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