औरंगाबाद(लाइव इंडिया न्यूज 18 ब्यूरो)। यह स्थल विश्व प्रसिद्ध है। यह बिहार के औरंगाबाद की “देव” नगरी है। साक्षात यानी प्रत्यक्ष देव सूर्यदेव यहां स्थित अति प्राचीन त्रेतायुगीन सूर्य मंदिर में तीन रूपों में विराजमान है।
ये तीन रूप मध्याचल, अस्ताचल और उदयाचल है। इन तीन रूपों में यहां सूर्यदेव ब्रह्मा, विष्णु और महेश के रूप में विराजमान है। यह स्थल ऐतिहासिक, धार्मिक, आध्यात्मिक और पौराणिक दृष्टिकोण से अति महत्वपूर्ण है। यहां का सूर्य मंदिर दुनियां का ऐसा इकलौता सूर्य मंदिर है जिसका मुख्य द्वार पूर्व की न होकर पश्चिम की ओर है जबकि आम तौर पर कही भी सूर्य मंदिर का मुख पूरब की ओर होता है। यह मंदिर शिल्प, स्थापत्य और वास्तु कला के दृष्टिकोण से अत्यंत भव्य मंदिर है। इसका शिल्प ओडिसा के पुरी के जगन्नाथ मंदिर से मिलता जुलता है।
कहा जाता है कि इतना अद्भुत मंदिर कोई साधारण शिल्पी बना ही नही सकता है। इसी वजह से किवंदति है कि इस मंदिर का निर्माण देवशिल्पी भगवान विश्वकर्मा ने स्वयं अपने हाथों से किया है। देवशिल्पी ने इस इलाके में एक ही रात में तीन मंदिर बनाएं। इनमें पहला देव का सूर्य मंदिर, दूसरा उमगा का सूर्य मंदिर और तीसरा देवकुंड का बाबा दुधेश्वरनाथ महादेव मंदिर है। कहा जाता है कि निर्माण के वक्त प्रातः बेला आ जाने के कारण दुधेश्वरनाथ मंदिर अधूरा रह गया, जो आज भी अपने अधूरे रूप में ही विद्यमान है।
यह भी किवंदति है कि श्वेत कुष्ठ से पीड़ित राजा ऐल एक बार आखेट करने देव के वन प्रांतर में आएं। इस दौरान उन्हे बेहद जोर की प्यास लगी। प्यास से विह्वल राजा ने पास में ही एक गड्ढ़े में भरे जल को अंजुरी से पियां। जल ग्रहण करने के बाद राजा यह देख आश्चर्यचकित रह गये कि अंजुरी में पानी भर कर पीने के दौरान जल का जहां तक उनके हाथों से स्पर्श हुआ, वहां का श्वेत कुष्ठ दूर हो गया। यह आश्चर्यजनक परिवर्तन देख राजा उसी गड्ढ़े में लोटपोट हो गये और गड्ढे के जल के प्रभाव से उनका श्वेत कुष्ठ पूरी तरह ठीक हो गया। इसके बाद राजा ने वन प्रांतर में ही रात्रि विश्राम करने का निश्चय किया। रात्रि विश्राम के दौरान ही राजा को यह स्वप्न आया कि पास में ही सूर्यदेव की प्रतिमा दबी पड़ी है। उन्हे निकालकर मंदिर का निर्माण कराओ। स्वपन के अनुसार ही खुदाई कराने पर वहां तीन मूर्तियां मिली और राजा ने मंदिर बनवाकर उन्हे यहां स्थापित किया।
वही मंदिर यहां त्रेतायुगीन सूर्य मंदिर और वही गड्ढ़ा आज यहां सूर्यकंड के रूप में विद्यमान है। मंदिर के निर्माण के बाद यहां की ख्याति दूर दूर तक फैली और लोग छ्ठ व्रत करने यहां आने लगे। आज भी यहां चैत्र और कार्तिक माह में लोग छठ व्रत करने यहां आते है। एक खास बात यह भी है कि यहां माना जाता है कि देव में कभी भी सूर्यदेव अस्त नही होते। इसी वजह से यहां दूरदराज से आएं श्रद्धालु व छठव्रती पहला अर्ध्य देने के बाद लगे हाथ दूसरा अर्ध्य देकर लगे हाथ वापस लौट जाते है। यह सिलसिला प्रथम दिन के अर्ध्य से लेकर दूसरे दिन के अर्ध्य तक चौबीसों घंटे चला करता है। इस बार के चैती छ्ठ पर भी यहां करीब पांच लाख श्रद्धालु और छठ व्रती छ्ठ करने आये है और वें सूर्यकुंड में लगातार अर्ध्य अर्पित कर भगवान भाष्कर की पूजा अर्चना कर रहे है। देव में सूर्यदेव को अर्ध्य देने और दर्शन पूजन का तांता लगा हुआ है। कहा जाता है कि सूर्यदेव यहां आनेवाले भक्तों की सभी मनोवांछित मनोकामनाओं को तो पूरा करते ही है। साथ ही छ्ठ व्रत के दौरान यहां श्रद्धालुओं को साक्षात सूर्यदेव की उपस्थिति की आंतरिक रूप से रोमांचक अनुभूति होती है।