हालिया पांच राज्यों के चुनावों में देश की सबसे पुरानी राजनैतिक दल कांग्रेस को मुंह की खानी पड़ी। सबसे बुरी स्थिति उसे अपने सत्तारूढ़ राज्य पंजाब में देखने को मिली जब आम आदमी पार्टी ने उसे ऐसी स्थिति में धकेल दिया जहाँ उसकी सामाजिक समीकरण के चर्चे सबसे जोर-शोर से थे और सम्भावित जीत के चर्चे हो रहें थे। उत्तराखंड और गोवा के अलावे मणिपुर में भी कांग्रेस को शर्मनाक पराजय का सामना करना पड़ा। लेकिन इन सब के बीच कांग्रेस की करिश्माई नेता राष्ट्रीय महासचिव व उत्तर प्रदेश की प्रभारी प्रियंका गांधी वाड्रा के राजनीतिक परीक्षा में उनके प्रदर्शन को आंकने को मजबूर होना पड़ेगा। प्रियंका गांधी वाड्रा को अब तक तुरुप का इक्का बताने वाले कांग्रेस कार्यकर्ता उनके करिश्माई व्यक्तित्व के नाम पर चुनावी वैतरणी को पार करने के फिराक में थे जिसपर प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के मैजिक ने ब्रेक लगा दिया।
अब जब समीक्षाओं का दौर कांग्रेस पार्टी के भीतर चला और कार्यसमिति की बैठक हुई तो अपनी हार का कारण भारतीय जनता पार्टी के आक्रामक चुनाव प्रचार तरीकों और अपने प्रचार को जनता के बीच ससमय उचित तरीके से नहीं पहुंचा पाने को कांग्रेस ने माना। साथ ही पंजाब के चुनाव में नेतृत्व परिवर्तन से उपजे विवाद को उचित तरीके से नहीं निपटारा करने को लेकर भी कांग्रेस नेतृत्व ने अपनी गलती स्वीकारी है। राष्ट्रीय कार्यसमिति के साथ यह ठीक उसी प्रकार की समीक्षा थी जो हाल के वर्षों मेंल्गातर कांग्रेस के बुरे प्रदर्शनों के बाद होती चली आ रही है। ऐसी बैठकों में अपने नेताओं के बीच विमर्श के उपरान्त आगे की रणनीतियों में सुधार की बात परयह आलाकमान के मुख्य सिपहसालार रखते आयें हैं।
भारतीय राजनीतिक दल जनता के नब्ज को प्रत्येक चुनावों में टटोलने की कोशिश करते हैं और जो सफल हो जाते हैं उनको जनता भारी बहुमत से सत्ता की राह दिखा देती है तो दूसरे दल जो जन उम्मीदों को नहीं सम्भाल पाते उनको विपक्ष में बैठा देती है। 2019 के लोक सभा चुनावों में कांग्रेस ने अपनी हार का समीक्षात्मक रिपोर्ट वरिष्ठ नेता ए के एंटनी के नेतृत्व में दल के भीतर जब सौंपा तो अत्यधिक अल्पसंख्यक तुष्टिकरण को हार का कारण माना गया था। वर्तमान चुनाव में उत्तर प्रदेश की प्रभारी महासचिव प्रियंका गाँधी वाड्रा ने महिलाओं की भागीदारी को मुख्य मुद्दा बनाकर चुनावों में अपनी पार्टी को उतारा था लेकिन जब रणनीतिक तौर पर वें इस बात को चूक मानेंगी तो उनके पूरे चुनाव अभियान को कठघरे में खड़ा किया जा सकता है।
लड़की हूँ लड़ सकती हूँ जैसे सशक्त नारे के बावजूद उनके दल का प्रदर्शन कमजोर रहा और महिलाओं ने इसे केवल नारे के रूप में लिया। इस नारे के शाब्दिक अर्थों से जुड़ाव महिला समाज का नहीं हो सका जिसका परिणाम रहा कि जिस उन्नाव बलात्कार पीडिता की माँ को कांग्रेस ने प्रत्याशी बनाया वो बुरी तरीके से चुनाव हार गयी जबकि उस मामले ने राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियाँ बटोरी थी फिर भी चुनावी लाभ कांग्रेस को नहीं मिला। इसका साफ़ मतलब रहा कि जिस महिला सशक्तिकरण और महिला उत्थान के नाम पर कांग्रेस ने मुख्य रूप से लड़ाई लड़ी वहीँ कमजोर पड़ते गयी।
उत्तर प्रदेश के चुनावों में कांग्रेस पार्टी ने प्रियंका गांधी वाड्रा के नेतृत्व में चुनावी रणनीति बनाई और उसका क्रियान्वयन करने के लिए कार्यकर्ताओं को लगातार प्रोत्साहित करने का काम किया बावजूद इसके कांग्रेस को उस दर्जे की सफलता प्राप्त नहीं हुई जिसकी खुद कांग्रेस नेतृत्व ने उम्मीदें पाल रखी थी। लेकिन इन सब के बीच उत्तर प्रदेश के पूरे विधानसभा सीटों पर उतरे कांग्रेस प्रत्याशियों में से केवल दो ने ही चुनावी लड़ाई जीती और 36 प्रत्याशी हजार से कम मतों के अंतर से चुनावों में पिछड़ गये। इन चुनाव परिणामों ने कार्यकर्ताओं में जोश तो भरा लेकिन चुनावी हार ने फिर से नेतृत्व की कार्यशैली पर सवाल उठाने का मौका दे दिया। जबकि ये हार सामूहिक हार रही न कि केवल कांग्रेस नेतृत्व की। जब दल जीतता है तो कार्यकर्ता और नेतृत्व जीतता है और जब दल हारता है तो कार्यकर्ता सहित नेतृत्व हारता है।
कार्यकर्ताओं को कांग्रेस के हार में उन्हें अपनी हार देखनी चाहिए लेकिन यदा कड़ा कभी कभी नेतृत्व के विरोध में स्वर फुट पड़ते हैं तो ये सोचने को मजबूर होना पड़ता है कि नेतृत्व की कमियाँ ज्यादा हैं या कार्यकर्ताओं के उत्साह में। ऐसे रणनीतिक चूक से महत्वपूर्ण राज्यों में हार व निराशाजनक प्रदर्शन के कारण कांग्रेस की राष्ट्रीय अध्यक्षा के रूप में काम कर रही सोनिया गांधी ने कार्यसमिति की बैठक में यह पेशकश भी कर दी कि यदि गांधी परिवार को कांग्रेस की कमजोरी का मुख्य कारण माना जा रहा है तो वें इस्तीफा देने के लिए भी तैयार हैं जिसपर अन्य नेताओं ने उन्हें ऐसा करने से मना किया। पुराने कांग्रेस कार्यकर्ता गांधी परिवार को आज भी कांग्रेस की मजबूती और एकीकरण का महत्वपूर्ण आधार मानते हैं। नये और युवा वर्ग में वें ये संदेश पहुंचा पाने में असमर्थ नजर आते है कि गांधी परिवार ने देश के लिए दो दो प्रधानमंत्रियों को खोया है तो भारतीयता और राष्ट्रीयता के मुद्दे पर प्रजातान्त्रिक व्यवस्था के सबसे महत्वपूर्ण पद प्रधानमन्त्री तक को ठुकराया है।
कार्यकर्ता किसी भी राजनीतिक दल के मुख्य थाती होते हैं। दबे स्वरों में ही सही लेकिन कतिपय ये लगातार विरोध के स्वर सुनने को मिलते रहें हैं कि कांग्रेस में कार्यकर्ताओं से ज्यादा नेताओं की भरमार है जो खानदानी राजनीतिक थाती को सम्भालें हुए हैं और सामाजिक गतिविधियों से दूर हो चुके हैं बावजूद इसके उन्हें सत्ता में बराबर की हिस्सेदारी चाहिए। कांग्रेस के स्थानीय नेताओं और कार्यकर्ताओं को यह बात समझनी होगी कि अब जब कांग्रेस का जनाधार अवनति पर है तो उन्हें सांगठनिक मजबूती के लिए अपना भरपूर देना होगा। ऐसे में केवल चुनावी मौसम में रैलियों की भीड़ जुटाने से वोट में उन्हें तब्दील कर पाना सम्भव नहीं है। ऐसे में संगठन के सिम्बल पर चुनाव लड़ने से ज्यादा महत्वपूर्ण उसको धारदार बनाने और मजबूत करने पर देना चाहिए। पार्टी को अपने पूर्व प्रत्याशियों से लेकर वर्तमान और आगामी प्रत्याशियों को जमीनी स्तर पर काम करने को निर्देशित करना चाहिए।
भारतीय राजनीति में वर्तमान दौर में भारतीय जनता पार्टी जिस तरीके से ध्रुव तारे के रूप में चमक रहा है वैसे में यह उनके शीर्ष नेतृत्व से लेकर सबसे निचली इकाई पन्ना प्रमुख तक की भूमिका की ही देन है, जिसे कांग्रेस के नेताओं और कार्यकर्ताओं को अविलम्ब समझ कर हकीकत में बदलने की जरुरत है। प्रजातान्त्रिक राष्ट्र के रूप में स्थापित हमारे देश के राजनीतिक हालत में सशक्त विपक्ष की भूमिका का निर्वहन उतना ही जरुरी है जितना कि वर्तमान दौर में मजबूत सत्ता पक्ष का होना। जहाँ कांग्रेस अपने वर्तमान दौर में सबसे बुरे राजनीतिक हालातों से गुजरने के बावजूद भी देश में दूसरी सबसे बड़ी पार्टी बनी हुई है वैसे दौर में विपक्ष के अन्य दलों का लगातार कांग्रेस के उपर ही होने वाले हमलों से हालत कांग्रेस के लिए बदतर हो रहें हैं।
जन अपेक्षाओं के अनुसार कांग्रेस का नेतृत्व लगातार जनोपयोगी मुद्दों पर सडकों पर दिखती है लेकिन मुद्दों को लम्बे समय तक जीवित रख चुनावी लाभ ले पाने में असमर्थ नजर आती है जिसकी मुख्य वजह कांग्रेस में कार्यकर्ताओं और नेताओं के बीच उचित संचार का ना होना और समन्वय स्थापित करने में कमी को माना जाता है।
कांग्रेस को अपने संगठन को मजबूती देने के लिए जमीनी कार्यकर्ताओं की पहचान करनी चाहिए जो बिना लाग लपेट विचारधारा के लड़ाई में अपना योगदान दें सकें। चुनावी हार जीत लोकतंत्र की खूबसूरती है लेकिन विचारधारा को लेकर लड़ी जाने वाली राजनीतिक स्वस्थ्य लड़ाई में पक्ष और विपक्ष दोनों को सशक्त होने की आवश्यकता होती है।
लेखक: स्नेहाशीष वर्धन, असिस्टेंट प्रोफेसर, मीडिया विभाग, गोपाल नारायण सिंह यूनिवर्सिटी