विज्ञान हमारे जीवन के हर पहलु में रचा बसा है, पर इतिहास की भी जानकारी जरुरी है। बहुधा ऐसा होता हैं कि हम इतिहास के ओझल पहलुओं से अपरिचित हुआ करते है। इतिहास के ओझल पहलुओं के प्रति अवाम की जिज्ञासाओं के निवारण के लिए कलम उठाई है-वरिष्ठ और स्वतंत्र पत्रकार राकेश कुमार ने। श्री कुमार समय-समय पर इस मंच पर इतिहास के अनछुएं और ओझल पक्ष से हमारे पाठकों को रुबरु कराएंगे। प्रस्तुत है दूसरी कड़ी-(सं)
आपातकाल के दौरान,10 अगस्त,1976 को डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी अपनी पत्नी रुखसाना की मदद से राज्यसभा में उपस्थिति दर्ज कराने में कामयाब हुए थे. राज्यसभा में दिवंगतों को श्रद्धांजलि दी जा रही थी. उसके बाद डॉ स्वामी ने व्यवस्था का प्रश्न उठाया. सभापति बी डी जत्ती से इजाजत मिलने पर स्वामी ने कहा, महोदय, मृतकों की सूची में एक नाम छूट गया है. सभापति ने पूछा, किसका? … ‘लोकतंत्र’ का महोदय, स्वामी ने कहा. जबतक लोग पुलिस को सूचना दे पाते, स्वामी राज्यसभा से फुर्र हो गये. कहा जाता है कि इस दौरान गृह राज्यमंत्री ओम मेहता(राजनीतिक संकुल में श्रीमती इंदिरा गांधी के करीबी होने के कारण ‘होम मेहता’ के नाम से जाने जाते थे) स्वामी को खड़े होते देख बेंच के नीचे छिप गये थे. 4 मई, 1976 को श्रीमती इंदिरा गांधी ने एक सरकारी फाइल पर नोट में लिखा था कि प्रसारण के बारे में जो मार्गदर्शक सिद्धांत तय किये गये हैं, वे सब पुराने पड़ गये हैं, इसलिए नियमावली को खत्म किया जा रहा है, पर मैं नहीं समझती कि इसकी औपचारिक सूचना मंत्रिमंडल को देने की आवश्यकता है. सितंबर, 1975 की एक वाक्या का जिक्र आवश्यक है, ताकि प्रेस की स्वतंत्रता का स्वतंत्र आकलन किया जा सके….
आकाशवाणी और दूरदर्शन सरकार के अधीन हैं, इसलिए इस बात का प्रश्न ही नहीं उठता है कि वे तटस्थ रहें
सितंबर, 1975 में श्रीमती इंदिरा गांधी ने आकाशवाणी के केन्द्र निदेशकों को संबोधित करते हुए कहा था,” मैं नहीं समझ पाती कि विश्वसनीयता का क्या अर्थ है. क्या समाचार पत्र विश्वसनीय हैं, जो दिन-रात झूठ छापते रहते हैं.”
संबोधन में श्रीमती गांधी ने आगे कहा था कि सरकारी कर्मचारी हर हालात में सरकार के आदेशों का पालन करने के लिए बाध्य हैं.
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इसी कार्यक्रम में तत्कालीन सूचना एवं प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल जी ने कहा था कि आकाशवाणी और दूरदर्शन सरकार के अधीन हैं, इसलिए इस बात का प्रश्न ही नहीं उठता है कि वे तटस्थ रहें.