एक दशक तक रही पानी की कमी के बाद महाराष्ट्र के सुर्डी गांव के लोगों ने व्यवस्था लिया अपने हाथों में, जानिए फिर क्या हुआ


डी श्रीनिवास, सुर्डी, महाराष्ट्र: लंबे समय तक पानी के संकट से जूझने के बाद गांववालों ने आखिरकार अपने गांव को पानी की कमी से न जूझने, सूखा-प्रतिरोधी और आत्मनिर्भर बनाने के लिए एक ऐतिहासिक जल संरक्षण प्रयास शुरू किया। एक दशक तक रही पानी की कमी के बाद महाराष्ट्र के सुर्डी गांव के लोगों ने मामला अपने हाथों में लिया।

पश्चिमी महाराष्ट्र के सोलापुर ज़िले से लगभग 51 किमी दूर बसे सुर्डी गांव की आबादी 3,350 है। वैसे इस इलाके के अधिकांश गांव साल भर जलसंकट का सामना करते हैं। गर्मी आते ही यहां पानी के सभी स्रोत सूख जाते है। लेकिन बरशी तहसील के सुर्डी गांव की कहानी इनसे थोड़ी अलग है। ये गांव अपने प्रयासों के चलते वाटरशेड जल संरक्षण के लिए मिसाल बन गया है।

पानी की समस्या को दूर करने के लिए गांव की महिलाओं और बच्चों सहित सभी गांव वालों ने एक अनूठी पहल की शुरूआत की। उन्होंने 18,070 वर्गमीटर क्षेत्र में समुदाय संचालित वाटरशेड जल संरक्षण परियोजना को शुरू किया। इसके लिए उन्हें “टैंकर-मुक्त गांव” का खिताब भी दिया गया है।

केंद्र सरकार ने भी उनके प्रयासों को मान्यता दी। केंद्रीय जल शक्ति मंत्रालय द्वारा आयोजित राष्ट्रीय जल पुरस्कार 2022 में सुर्डी ग्राम पंचायत ने “सर्वश्रेष्ठ ग्राम पंचायत” श्रेणी में तीसरा पुरस्कार जीता था।

समाधान ढूंढने में जुटे गांव वाले

सन् 2010 तक सूर्डी में जल संकट का कोई अंत ही नहीं दिखता था। जैसे-जैसे साल गुज़रते जा रहे थे जलसंकट और भी ज़्यादा बढ़ता जा रहा था। ज़मीन के अंदर पानी का स्तर कम होने के कारण हर साल फरवरी के महीने में सभी जलस्रोत सूख जाते थे। इतना ही नहीं ज़िला डेटा रिपोर्ट के अनुसार, गांव में पूरे साल औसतन सिर्फ 601 मिमी वर्षा होती थी।

गांव वाले बताते हैं कि यहां मौजूद ज़्यादातर कुएं पूरी तरह से सूख गए थे। इस वजह से कई लोग मजबूर होकर सुर्डी को हमेशा के लिए छोड़ कहीं और रहने के लिए चले गए। इनमें से कईयों ने अपने खेत बेचने की भी कोशिश की लेकिन वे असफल रहे। पानी की कमी के चलते कोई इनकी ज़मीन खरीदने को तैयार ही नहीं था।

इस समस्या से निपटने, उस पर विस्तृत चर्चा करने और व्यवहारिक समाधान निकालने के लिए आखिरकार मधुकर दोईफोड़े के नेतृत्व में कुछ स्थानीय युवाओं, सामाजिक कार्यकर्ताओं और सुर्डी निवासियों ने गांव वालों के साथ मिलकर एक बैठक बुलाई। बैठक के बाद यह फ़ैसला लिया गया कि गांव में पानी की कमी को पूरा करने के लिए समुदाय के लोग मिलकर वाटरशेड प्रबंधन परियोजनाओं की शुरुआत करेंगे।

इससे पहले दाईफोड़े ने गांववालों को अपनी ज़मीन को हरा-भरा रखने के लिए प्रेरित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। राज्य सरकार द्वारा चलाई गई तंतमुक्ति गांव अभियान योजना और जल संरक्षण से जुड़ी कई कार्यशालाओं में भी उन्होंने भाग लिया था। ऐसी ही एक कार्यशाला के बाद उन्होंने गांव के स्तर पर ही सुर्डी के जल संकट की समस्या को हल करने का फैसला लिया।

101 रिपोरर्ट्स से बातचीत में उन्होंने बताया,”हम इस बात से सहमत थे कि बारिश के पानी को जमा करके ज़मीन के नीचे जलस्तर को ठीक करने में मदद मिल सकती है। लेकिन, सिर्फ ऐसा करने भर से जल संकट को सुधारा नहीं जा सकेगा।”

ज़िला प्रशासन से मदद की प्रतीक्षा किए बिना ही महिलाओं बच्चों समेत गांव के अन्य लोग सुर्डी गांव की सीमा के साथ 600 मीटर लंबी खाई खोदने के लिए आगे आए। ऐसा करके बारिश के पानी को जमा किया जा सकता था। इस कार्य के लिए शुरूआती पैसा समुदाय के लोगों ने ही लगाया। फिर ग्राम पंचायत ने राज्य के कृषि विभाग से संपर्क किया। जिसने आवश्यक सरकारी अनुमोदन के साथ परियोजना के लिए तकनीकी सहायता प्रदान की। गांव वालों ने एकजुट प्रयास किया और गांव के सूखे पड़े तालाबों को बारिश के पानी से भर डाला।

दोईफोड़े कहते है,”शुरुआत में जल संरक्षण के प्रयासों के लिए गांव वालों को एकजुट करना बहुत मुश्क़िल था। लगातार परामर्श और बातचीत के बाद आखिरकार वे तैयार हुए।”

वे अनुमान लगाकर कहते हैं कि अपनी रोज़ की जरूरतों को पूरा करने के लिए गांव वाले दिन के करीब 3 घंटे पानी भरने में खर्च करते हैं। हिसाब लगाया जाए तो यह महीने में लगभग 90 घंटे और साल में 45 दिन हुआ। इसकी जगह अगर हर एक परिवार खाई खोदने के लिए अपने आठ से दस दिनों की मेहनत का योगदान दे, तो इस समस्या का स्थायी समाधान निकाला जा सकता है।
सुलभा बालू मोहिर ऐसी ही एक ग्रामीण हैं, जिन्हें इस सामुदायिक पहल में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया गया था।
101 रिपोरर्ट्स से बात करते हुए उन्होंने कहा,“एक साथ पानी के 3 से 4 बर्तन भर कर ले जाना बहुत मुश्किल होता था। जब हमने इस सामुदायिक कार्य के बारे में सुना, तो हमने समय बर्बाद किए बिना खुशी-खुशी इसमें भाग ले लिया।”

सूर्डी की रहने वाली 37 वर्षीय उमा थोपटे को अपने छह सदस्यों के परिवार के लिए पानी लाने में पहले कई घंटे लग जाते थे। मार्च- अप्रैल के महीनों में जब भयंकर गर्मी पड़ती तो अक्सर उन्हें छठी क्लास में पढ़ने वाले अपने बेटे को स्कूल से छुट्टी करानी पड़ती थी ताकि वह पानी भरने में उनकी मदद कर सके।

वे कहती हैं,” जल संरक्षण कार्य के बाद हमारे कुएं पानी से भरे रहते हैं। अब हमें पानी भरने के लिए दूर तक जाने की जरूरत नहीं पड़ती।”

एकजुट प्रयास और मेहनत के साथ गांव वालों ने पहाड़ की चोटी पर भी पानी जमा करने के लिए छोटे-छोटे बेसिन और तालाब बनाए हैं। जब गांव वालों की संयुक्त प्रयास के नतीजे अपेक्षाओं से अधिक हो गए, तब उन्होंने और भी अधिक चुनौतीपूर्ण परियोजनाओं के साथ आगे बढ़ने का फैसला लिया। पिछले डेढ़ साल में गांव वालों ने कई जल संचयन परियोजनाओं पर काम करना शुरू किया है। इन में से कुछ परियोजनाएं रिवलेट डीपनिंग, गेबियन वाटरशेड प्रोजेक्ट, कांन्जिक्यूटिव प्लेन वेरिएबल्स, डीप कंस्ट्रक्श कॉन्टूर ट्रेंच, डीप ड्रेंच, इनलेट और आउटलेट वॉटर टैंक, फार्म पौंड, चेक डैम और स्टोन चेक डैम है।

दोईफोड़े कहते है,” वाटरशेड परियोजना से करीब 30 करोड़ लीटर पानी जमा किया जा सकता है। यह मात्रा गांव की ज़रूरत से कहीं ज़्यादा है।

अपने क्षेत्र की तरक्की से उत्साहित हो कर गांव की सरपंच सुजाता दोईफोड़े 101रिपोरर्ट्स को बताती हैं,”पानी की कमी इस इलाके के लोगों की एक बड़ी समस्या थी। लेकिन लोगों के सामूहिक प्रयास से इस समस्या का हल निकल गया है। गांव की स्थिति अब बिल्कुल बदल गई है। लोगों ने नकदी फसलें जैसे गन्ना, अंगूर, पत्तेदार सब्जियां उगाना भी शुरू कर दिया है। कई गांव वाले नियमित रूप से उत्तम गुणवत्ता वाले फल और सब्जियों का मुंबई और पुणे में निर्यात भी करने लगे हैं।”

सुर्डी के एक किसान तुकाराम शिंदे कहते हैं,” मैं पहले सिर्फ ज्वार और बाजरा जैसी फ़सलें ही उगाया करता था जो बारिश पर निर्भर करती हैं। 2016 में पानी की कमी को देखते हुए मैंने अपनी 2.5 एकड़ जमीन बेचने का फैसला किया। मेरी किस्मत अच्छी थी कि उस समय मुझे कोई खरीददार नहीं मिला। वाटरशेड परियोजना आने के बाद अब मैं अपने खेतों में पत्तेदार सब्जियां उगाता हं और उन्हें मुंबई और पुणे के बाजारों तक पहुंचाता हूं।”

इस बीच सुजाता यह भी याद करती हैं कि पहले किस तरह गांव सिर्फ दो हैंडपंप और कुओं पर निर्भर रहता था।

वह कहती हैं, “हर गर्मी में पानी के स्रोत सूख जाया करते थे। तब गांव वालों और मुख्य रूप से महिलाओं को खेतों में लगे कुओं से पानी भरकर लाने के लिए दो-तीन किलोमीटर पैदल चलना पड़ता था।”

सूर्डी की एक अन्य निवासी अनुराधा मगर ने 101रिपोरर्ट्स को बताया, “गर्भवती महिलाओं को भी रोजमर्रा के कामों के लिए पानी लाने में काफी तकलीफों का सामना करना पड़ता था।”

इसमें कोई हैरानी की बात नहीं थी कि सामुदायिक वाटरशेड परियोजना में पुरुषों की तुलना में महिलाओं की अधिक भागीदारी थी। गांव वालों के अनुसार, इस परियोजना में सूर्डी की लगभग 50 से 60 प्रतिशत महिलाओं ने भाग लिया। यह महिलाएं पानी की हर एक बूंद का कीमत जानती थीं. गर्भवती महिलाओं को भी दूर से पानी भर कर लाने के लिए कड़ी मेहनत और थकावट का सामना करना पड़ता था । यही वजह है कि परियोजना से जोड़ने के लिए महिलाओं को ज़्यादा समझाने की जरूरत नहीं पड़ी। वहीं गांव के युवक परामर्श और बातचीत के बाद ही इस परियोजना से जुड़ने को तैयार हुए।

अभिनंदन शेल्के सुर्डी में रहने वाले एक किसान हैं। वह कहते हैं,”टैंकरों से बार-बार पानी नहीं खरीद पाने के कारण कई गांव वालों ने पहले अपनी फसलों को नष्ट कर दिया था। अब जब पानी की उपलब्धता बढ़ गई है तो प्याज और अंगूर की फ़सल उगाने के क्षेत्र को बढ़ाया जा सकेगा।”

जब गांव वाले जल संरक्षण में आत्मनिर्भर हो गए तब ग्राम पंचायत ने एक नया प्रस्ताव पारित किया। इस प्रस्ताव में पानी के ज़िम्मेदार और सही तरीके से इस्तेमाल को जरूरी कर दिया गया। साथ ही गांव में खेतों की बाढ़ सिंचाई पर प्रतिबंध लगा दिया गया। गांववासियों को टपकेदार या ड्रिप सिंचाई का विकल्प चुनने का निर्देश दिया गया।

गांव वालों के इन प्रयासों पर ज़िला अधिकारियों का भी ध्यान गया और उन्होंने उनके कार्यों की खूब सराहना की।

जिला कलेक्टर मिलिंद शम्भरकर ने कहा,”सूर्डी गांव के लोगों ने यह दिखा दिया है कि एकता में कितनी ताकत है। उन्होंने यह उदाहरण भी पेश किया है कि किस तरह कोई भी गांव जल प्रबंधन कर आत्मनिर्भर बन सकता है।” वे आगे कहते हैं,”मुझे विश्वास है कि सूर्डी गांव से प्रेरित होकर ज़िले के अन्य गांवों में भी जल संरक्षण एवं संवर्धन का कार्य किया जाएगा।”